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अष्टम आचार-प्रणिधि अध्ययन
दोहा- बल पिरता को देखिके, पता, निज आरोग्य ।
क्षेत्रकाल लखि आत्म को, कर नियत ता-योग्य ।।
अर्ष-अपने बल, पराक्रम, श्रद्धा और आरोग्य को देखकर तथा क्षेत्र और काल को जानकर साधु अपने आपको मुक्ति के मार्ग में लगावे ।
मोतियादाम छन्द-.
जब लगि आनि जरा न बबाय, जब लगि व्याधि नहीं बढ़ जाय । जब लगि इंद्रिय हारिन खाय, तब लगि धर्म अराधहु धाय ।।
अर्ष-जब तक जरा (बुढ़ापा) पीड़ित न करे, जब तक व्याधि (रोग) न बढ़े और जब तक इन्द्रियां क्षीण न हों, तब तक धर्म का आचरण करे ।
(३७) छप- क्रोध मान माया तजि देव, लोम पाप-बढ़ावन-हार ।
पारि दोस दूर करि देवं, मातम-हित-चिता चित-धार॥
अर्थ-- क्रोध मान माया और लोभ ये चारों कषाय पाप को बढ़ाने वाले हैं। अतः अपना हित चाहने वाला पुरुष इन चारों दोषों को छोड़े।
(३८) बोहा- क्रोध विनास प्रीति को, विनय विनास मान ।
माया भेट मित्रता, लोभ कर सब हान ॥ अर्थ . क्रोध प्रीति का नाश करता है मान विनय का नाश करने वाला है, माया मित्रों का विनाश करती है और लोभ इन सबका (प्रीति, विनय और मित्रता का) नाश करने वाला है।
(३९) छब- हने कोप को शान्ति-शस्त्र से, कोमलता से जीते मान ।
सरलपने से माया मारे, जीते लोमतोष उर मान ।
मर्ष-उपशमभाव से क्रोध का विनाश करे, मार्दवभाव से मान को जीते, आर्जवभाव से माया को जीते और सन्तोष से लोभ को जीते ।