________________
अष्टम बाचार-प्रणिधि अध्ययन
१८५
(२५) गोपाई- अलप चाह पोरे ते मरई, कक्ष खाय तोष हिय धरई।
कोप भाव कबहुं नहि करई, सुनि जिन-शासन भवतें उरई ।। अर्व-साधु रुक्ष वृत्ति (रूखे-सूखे भोजन पर निर्वाह करने वाला) होकर भी सदा सन्तुष्ट रहे । अल्प इच्छा वाला हो, सुभर (अल्प अन्न-पान से उदर भरने वाला) हो और जिन-शासन को सुनकर अर्थात् उसका ज्ञाता होकर किसी के आसुरक्त (क्रोध भाव को प्राप्त) न हो।
(२६) चौपाई- सुनिके शब्द श्रवण-सुखदाई, मान नहीं प्रेम ता माही।
पारन कर कस-फरस तु होई, कर सहन काया ते सोई॥
मर्ष-कानों के लिए सुखकर शब्दों को सुनकर उनमें प्रेम न करे और दारुण-कर्कश शब्दों को सुनकर उनमें द्वेष न करे, किन्तु काया से उन्हें सहन करे।
(२७) चोपाई- भूख-पियास सेज दुखकारी, सीत-ताप मरती भय मारी।
सह बीनता को बिनु लाये, मिले महाफल देह दुखाये ॥
अर्थ-क्षुधा, पिपासा, दुःशय्या (विषम भूमि पर सोना), शीत, उष्ण, अरति और भय को अव्यथित चित्त से सहन करे । क्योंकि देह के दुख सहन करना महान् फल का (कर्म-निर्जरा का) कारण है।
(२८) हा- अस्तंगत मादित्य का, जब लों उदय न होय ।
माहाराविक सर्व की, मनसा कर (चहै) न कोय ॥
मर्ष-सूर्य के अस्तंगत हो जाने से लेकर पुनः पूर्व दिशा में जब तक पुनः उदय न हो, तब तक रात्रि के समय आहारादि की मन से भी इच्छा न करे ।
(२९) चौपाई- नहिं अलाम को कह रिसाई, चपल न होय,अलप उचराई ।
उदर-समन होवे, मित खाव, अलप पाय नहि कुरो बता ॥
अर्थ-आहार न मिलने अथवा अरस मिलने पर तुन-तुनावे नहीं और न चपलता ही प्रकट करे। अल्प-भाषी, मित-भोजी और उदर का दमन करने वाला हो और थोड़ा आहार मिलने पर खिसियावे नहीं । (किन्तु सब दशाओं में शान्त रहे ।)