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अष्टम आचार-प्रणिधि अध्ययन
(२०) दोहा- काननि सों बहुतक सुन, बहुत निहार नेन ।
जोग न सब देख्यो सुन्यौ, मुनिको कहती वैन ।। अर्थ-साधु कानों से बहुत-सी भली-बुरी बातें सुनता है और आंखों से बहुत-सी भली-बुरी वस्तुएं देखता है। किन्तु देखी और सुनी सब बातें किसी से कहना साधु के लिए योग्य नहीं है।
' (२१) चौपाई- उपधात की बात कछु होई, देखी सुनी कह नहिं सोई ।
करि उपाय कोऊ मन-माने, नहिं संबंध गही सों ठाने । अर्थ-सुनी अथवा देखी हुई बात यदि औपघातिक (किसी प्राणी को द्रव्य या भाव रूप से पीड़ा पहुंचाने वाली) हो तो साधु न कहे। और किसी भी उपाय (कारण) से गृहस्थ के योग्य कार्य का आचरण न करे।
(२२) चौपाई- भोजन सब गुन-संजुत होई, अथवा रस-विहीन ह कोई।
भलो बुरो पावं नहिं पार्व, पूछ अनपूछ न बतावै ।। अर्थ-यह आहार सरस है अथवा नीरस है, यह भोजन भला है या बुरा है, यह बात किसी के पूछने पर, या बिना पूछे ही न बतावे। तथा आज आहार का लाभ हुआ है, या नहीं हुआ है, इसे भी किसी से न कहे ।
(२३) चौपाई- नहि भोजन में अतिरति लावै, मौनवंत विचर सम भाव ।
क्रोत उद्देसिक सनमुख लाव, अप्रासुक अस अन्न न खावै॥ अर्थ-भोजन में अतिगृद्ध (लोलुपी) होकर विशिष्ट घरों में नहीं जावे, किन्तु चालता-रहित होकर उञ्छ (अनेक घरों से थोड़ा-थोड़ा) आहार (भोजन-पान) लवे । अप्रासुक (सचित्त), क्रीत (खरीदा हुआ) और आहृत (सामने लाया हुआ) आहारादि न ग्रहण करे और न खावे ।
(२४) चौपाई- संजति संनिधि रंच न रालो, न हि संबंध गृहिन संग राले।
रहित प्रपंच जीवनो जाको,सो सब जग को, सब जगवाको। अर्थ-संयमी साधु अणुमात्र भी भोज्य वस्तु का संचय न करे । किन्तु मुधाजीवी (निःस्वार्थ भाव से जीवित रहने वाला) और असंवद्ध (गृहस्थों के प्रपंच से मुक्त या अलिप्त) रहकर जग-निश्रित रहे । अर्थात् जनपद पर निर्भर रहे एवं त्रस और स्थावर की रक्षा करे ।