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सप्तम वाक्यशुद्धि अध्ययन
१७१ (५४) सवैया- पानि जु निश्चय संसय कारनि, पापनि को अनुमोदन-हारी,
जामें बस पर-हानि सवा, वह प्राणनि-घात-करावन-हारी। कोपत लोभते वा मयतें अरु, हासतें हास-विनोद विचारी, सो कबहुँ न कहै मुखते मुनि, जो निज-आतम को उपकारी॥
अर्थ - इसी प्रकार सावद्य का अनुमोदन करनेवाली, निश्चयकारी, संशय करने वाली और जीवघात करनेवाली भाषा को मुनि नबोले । तथा क्रोध से, भय से, लाभ से और हास्य से भी दूसरों की हंसी करता ह न बोले ।
(५५) छंद- भली भांति सवचन शुद्धिको आलोचन करके मुनि धीर,
बरज सदा दुष्ट वाणी को जातें होय औरकों पीर । हिये विचारि वचन मिल बोले जामें दूषण कछू न होय, गुणी साधु सज्जन लोगनि में सदा प्रशंसा पावै सोय ॥
अर्थ- वह मुनि वाक्यशुद्धि को भली भांति से समझकर सदोष वाणी का सदा परिहार करे । किन्तु हित, मित और प्रिय वाणी सोच-विचार कर बोले । ऐसा बोलने नाला साधु सज्जनों के मध्य में सदा प्रशंसा पाता है।
(५६) वानी के गुन दोस जानि के सवा दुष्ट वच वरजन हार, षट विधि जीव-विघातक-वर्जक जतनसील जो है अनगार । श्रमण भाव राखन में उद्यत, रहत सदा ज्ञानी सविचार,
बोल वचन सकल-हितकारी, जामें दूसन नाहि लगार ॥
अर्थ - भाषा के दोषों और गुणों को जानकर दोष-पूर्ण भाषा को सदा बोलना छोड़े और छह काय के जीवों के प्रति संयम रखने वाला, श्रामण्य में सदा सावधान रहनेवाला प्रबुद्ध संयत हितकारी और प्राणियों के अनुकूल भाषा बोले ।