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सप्तम वाक्यशुद्धि अध्ययन
मर्ष-ये बहुत सारे असाधु लोक (जन-साधारण) में साघु कहलाते हैं । किन्तु प्रज्ञावान् मुनि असाधु को साधु न कहे, किन्तु जो साधु हो उसे ही साधु कहे । जो ज्ञान-दर्शन से सम्पन्न हो, संयम और तप में निरत हो, ऐसे गुणों से संयुक्त संयमी को ही साधु कहे।
(५०) दोहा-सुरनि नरनि तिरजंच में, रन होवत जो आहि ।
अमुकनि की जय हो न हो, ऐसे उचरं नाहि ॥ अर्थ-देव, मनुष्य और तिर्यंचों (पशु-पक्षियों) का आपस में विग्रह (युद्ध या कलह) होने पर अमुक की विजय हो और अमुक की विजय न हो, इस प्रकार साधु न कहे।
(५१) दोहा—वात वृष्टि हिम घाम अरु, खेम सुकाल कल्यान ।
कब हुई हैं, वा होउ मति, ऐसी कहै न वान ॥ अर्थ--वायु, वर्षा, सर्दी, गर्मी, क्षेम, सुभिक्ष और शिव (कल्याण) ये कब होंगे, अथवा ये न हों तो अच्छा हो, इस प्रकार साधु नहीं बोले ।
(५२) दोहा-मेघ मनुज नमकों तथा, देव 'देव' उचर न ।
चढ्यौ बढ्यो घन वरसिवे, कहै बलाहक वैन । अर्थ इसी प्रकार मेघ, नभ (आकाश) और मनुष्य के लिए ये देव हैं' ऐसी वाणी न बोले । किन्तु मेघ सम्मूच्छित हो रहा है (ऊपर चढ़ रहा है), उमड़ रहा है, अथवा झुक रहा है या बलाहक (मेघ) बग्म गया है, इस प्रकार बोले ।
(५३) दोहा - अंतरिक्ष नभ सो कहै, सुरगन-सेवित एह ।
रितिवंत नर हेरि के, रिविवंत कहि देह ॥ अर्थ - नभ और मेघ को अन्तरिक्ष अथवा गुह्यानुचरित (देव-सेवित) कहे । ऋद्धिमान् मनुष्य को देखकर 'यह ऋद्धिमान् पुरुष है' ऐसा कहे ।