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अष्टम आचार - प्रणिधि अध्ययन
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अर्थ - संयम की आराधना में समाधिवन्त साघु सचित्त पृथ्वी को, भीत को, शिला को, मिट्टी के ढेले को तीन करण और तीन योग से न तो उन्हें भेदे ( टुकड़ा करे और न घिसे । अर्थात् उन पर लकीर आदि न करे । वह शुद्ध ( शस्त्र से अपरिणत) पृथ्वी पर और सचित्त रज से संसृष्ट (भरे हुए) आसन पर न बैठे । अचित पृथ्वी का प्रमार्जन कर और उसके स्वामी से आज्ञा लेकर बैठे ।
( ६--७)
चौपाई - संजति सीतल जल नह सेवे, हिम हिम-उपलनि कों नहि लेवे । तपि के अचित भयो जो होई, ऊन्हो उबक गहीजे सोई ॥ सचित-सलिल-भीगी निज काया, तो न मले पूंछं मुनिराया । वैसी भांति देखि काया को, किंचित परसह करं न ताको ॥ अर्थ-संयमी साधु शीतल जल, ओले, बरसात का जल और हिम (बर्फ)
का सेवन न करे ! तप कर जो प्रासुक हो गया है वैसा जल ग्रहण करे । जल से भीगे अपने शरीर को न पोंछे और न मले । शरीर को भीगा हुआ देखकर उसका स्पर्श न करे ।
(5)
चौपाई - अर्गानि लोह-गत वा अंगारो, ज्वाल जोति-जुत काठ विचारो । नाह धोंके, न कर संघरसन, नहि मुनि वाको करे निवारन ||
अर्थ – मुनि अंगार, अग्नि, अच और ज्योति - सहित अलात (जलती लकड़ी) न प्रदीप्त करे, न स्पर्श करे और न बुझाये ।
(2)
पत्रतें, वा तथा वीजं
दोहा
-ताल- व्यजनतें
बाहिज पुदगल कों
मुनि तालवृन्त के पंखे से, बीजने से, पत्र या शाखा से अपने शरीर को हवा न करे । इसी प्रकार बाहिरी पुद्गल (गर्म दूध आदि) को ठंडा करने के लिए भी हवा न करे ।
तरु-डाल हिलाय ।
नहि निज काय ॥
(१०)
बोहा- - तर तृन को फल मूल कों, बहुविधि बीज सजीव को,
छेवन करें न कोय । चित हुन चाहे सोय ||
अर्थ – साधु तृण (घास ) वृक्षादि को तथा किसी वृक्षादि के फल और मूल
को तथा नाना प्रकार के सचित्त बीजों की मन से भी इच्छा न करे ।
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