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अष्टम आचार-प्रणिधि अध्ययन
बसन्ततिलका
माचार नामक निधान महान नीको, सो पाय के उचित जो फरनो मुनी को। · सो आपसों क्रम-समेत हि भाखि हों सों, ह सावधान सुनिये वह आप मोसों ॥
___ अर्ष-आचार-प्रणिधि अथवा सदाचार के भंडार स्वरूप साधुत्व को पाकर के भिक्षु को जिस प्रकार से जो कार्य करना चाहिए, यह मैं आपको कहूंगा सो क्रमपूर्वक मुझ से सुनो।
(२)
बोहा पुहवि पानि पावन पवन, तन तरु बीजहु जेह ।
बस ये प्रानी जीव है, कह्यौ महारिषि पेह ।। अर्थ-पृथिवी, उदक (जल), अग्नि, वायु, तृण-वृक्ष और बीजरूप वनस्पतिकाय तथा त्रस प्राणी, ये सब जीव हैं, इस प्रकार महर्षि महावीर ने कहा है।
दोहा ---तिनके संग रखनी सदा, हिंसा-हीन सुनोति ।
मनसों वचसों कायसों, होत साधु यह रीति ।। अर्थ-भिक्ष, को मन, वचन और काय से उक्त पट्काय जीवों के प्रति अहिसक होना चाहिए । इस प्रकार अहिंसक वृत्ति साधु ही संयत या संयमी होता है।
(४-५) दोहा- भूमि भीति सिल ईट खंड, भेदै घस न कोय ।
संजति त्रिकरण - जोगसों, जो समाधि-युत होय ॥ चौपाई- सचित घरनि पर बैठिय नाही, त्यों आसन रज लागी जाही । अधिकारी को आयसु लेकर, पूजन करि बैठे ता ऊपर ।।
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