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सप्तम वाक्यशुद्धि अध्ययन
(४५) रोला- भलो मोल यह लयो, भलो तुम बेचि दियो वह,
नहीं विसाहन-जोग, विसाहन जोग अहै यह। पहन करो यह माल, बेच याको तुम डारो,
ऐसे बचन अजोग, मुने ! तुम नाहि उचारो॥
अर्ष-सुक्रीत-तुमने यह माल खरीद लिया सो अच्छा किया, सुविक्रीततुमने अमुक माल बेच दिया सो ठीक किया, यह वस्तु अकेय-- खरीदने के योग्य नहीं है, अथवा यह केय-खरीदने के योग्य है, यह वस्तु इस समय खरीद लो, क्योंकि इसमें आगे चलकर लाभ होगा, इस समय यह वस्तु बेच डालो, क्योंकि आगे जाकर इसमें नुकसान होगा, इस प्रकार साधु न बोले ।
(४६) बोहा-अलप तथा बहुमोल के, क्रय-विक्रय कों लीन ।
पणित-हेतु-उतपत्ति भये, कहिये दोस-विहीन ॥ अर्थ-अल्पमूल्य या बहुमूल्य माल के लेने या बेचने के प्रसंग में मुनि अनवद्य (निर्दोष) वचन बोले । (क्रय-विक्रय से विरत मुनियों का इस विषय में कई अधिकार नहीं है, इस प्रकार कहे।)
(४७) बोहा-आव, जाव, अथवा ठहर, बैठ मोउ कर एह ।
यो न असंजति सों कहै, धोरवंत मति-गेह ॥ अर्थ- इसी प्रकार धीर और प्रज्ञावान् मुनि असंयत गृहस्थ से बैठ जा, आ जा, अमुक कार्य कर, सो जा, ठहर जा, खड़ा हो जा, चला जा, इस प्रकार न कहे।
(४८-४६) बोहा- ये असाधु बहु जगत में, कहे जात हैं साष ।
कहै न साधु असाष कों, कहै साधुकों साधु । मान-सहित दर्शन-सहित, संजम - तप - अनुरक्त । 'साधु' कहै वा संजतिहिं, जो इन गुन से युक्त ।