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सप्तम वाक्यशुद्धि अध्ययन
( ३८-३९)
दोहा तथा नदी जलसों मरी, तरी तरी सों चाहि । करन-तरन, जिय-पियन के जोग कहे यों नांहि ॥ बहुत भरी गहरी नदी, विथरी जल विस्तार । अपर नदी लोपी खरी बुध उचरे सुविचार ||
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अर्थ - तथा नदियां भरी हुई हैं, शरीर के द्वारा पार करने के योग्य हैं, नौका के द्वारा पार करने योग्य हैं और तट पर बैठे हुए प्राणी उनका जल पी सकते हैं, इस प्रकार न कहे । यदि प्रयोजन के वश कहना ही पड़े तो बुद्धिमान् साधु इस प्रकार कहे कि ये नदियां बहुत भरी हुई हैं, अगाध हैं, बहुसलिला हैं, दूसरी नदियों के द्वारा जल का वेग बढ़ रहा है और बहुत विस्तीर्ण जलवाली हैं ।
(४० – ४१ )
दोहा - कियो गयो, जावत कियो, कियो जायगो जाहि । जोग स पाप, परार्थ सो, लखि भाखं मुनि नाँहि ।। भलो कियो, पचियो मलो, छेद्यो भलो जु याहि । भलो हरयो, यह मल मरयो, यों उचरं मुनि नांहि ॥ भल विनास याको भयो, भली विवाह एह । ऐसे बोल सबोस जे, मुनिवर वरजं तेइ ॥
अर्थ - इस प्रकार दूसरे के लिए भूतकाल में किये गये, वर्तमान काल में किये जा रहे और भविष्य काल में किये जानेवाले सावद्ययोग (पापयुक्त) व्यापार को जानकर मुनि सावद्य वचन न बोले कि यह प्रीतिभोज आदि कार्य अच्छा किया, अथवा यह सभा भवन आदि अच्छा बनवाया, यह भोजन या तेल आदि अच्छा पकाया, यह भयकर वन काट दिया सो अच्छा किया, इस कंजूस का धन चोर चुरा ले गये सो अच्छा हुआ, वह दुष्ट मर गया सो अच्छा हुआ, इस धनाभिमानी का धन नष्ट हो गया सो उत्तम हुआ, यह कन्या जवान है, अतः विवाह करने के योग्य है, इस प्रकार के सावध वचन साघु न बोले । किन्तु इस प्रकार के निरवद्य वचन बोले कि इसने बुद्ध मुनियों की अच्छी सेवाशुश्रूषा की, इस मुनि ने ब्रह्मचर्य का अच्छा पालन किया, अमुक मुनि ने सांसारिक स्नेह बन्धनों को अच्छी तरह काट दिया है, यह मुनि उपसर्ग के समय भी ध्यान में खूब दृढ़ रहा, अथवा इस तत्त्वज्ञ मुनि ने उपदेश द्वारा शिष्य का अज्ञान दूर कर दिया, अमुक मुनि को अच्छा पंडितमरण प्राप्त हुआ कि इस अप्रमादी मुनि के सर्व कर्मों का नाश हो गया, अमुक मुनि की क्रिया बहुत सुन्दर है, इस प्रकार की निर्दोष भाषा को मुनि बोले ।