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सप्तम वाक्यशुद्धि अध्ययन
(३४-३५) सर्वया- पाकि रहे यह औषधि धान, तथा इनमें छवि श्यामल छाई,
खूनन-सायक, भूनन-लायक, खानन-लायक, आधि पकाई। ऐसे सदोष कर नहि मासन, यों जिनशासन ऐति जमाई,
है मुनि-नायक वायक की यह रीति विचारन लायक भाई ॥ कवितऐसे कहं धाननि में आनन उचारन को आन बने कारन तो ऐसे कछु कहिये, विढ़ मये अंकुर, अधिक निसपना भये, पिर मये धान, ऐसे देखन में लहिये । 'विघ्ननि त बचि गये, सिटे नहि कड़े अजों, सिट्टे कढ़ि आये ऐसे देखनि में लहिये, सिट्टान में बीजह परे हैं, ऐसे दोस-हीन, हिंसा-भावहीन वैन आनन सों कहिये ।।
अर्थ-इसी प्रकार ये औषधिया पक गई हैं, ये अपक्व हैं, ये छवि (फली) वाली हैं, ये काटने के योग्य हैं, ये भूनने के योग्य हैं, ये चिड़वा-होला-बनाकर खाने के योग्य हैं, इस प्रकार न बोले । (यदि कार्यवश बोलना ही पड़े तो) औषधियां अंकुरित हैं, निष्पन्न-प्राय हैं, स्थिर हैं, ऊपर उठ गई हैं, भुट्टों से रहित हैं, भुट्टों के सहित हैं, धान्य-कण-युक्त हैं, इस प्रकार से बोले ।
(३६-३७) बोहा- जाने जीमनवार कहुं, लों न कहैं मुनि लोग ।
यह कारज माछी महै, अथवा करनहिं जोग ।। तथा चोर लखि 'चोर यह' मारन लायक आहि ।
तिरन-जोग नीके नदी, ऐसे उचरे नाहि ।। अरिल्लजीमनवार हि कहिये जीमनवार है, चोरहि कहिये स्वारथ-साधन-हार है। प्राननि को दुख देत अरष को धारिये, 'सरिता समतल तीर' आदि उचारिये ।।
अर्थ -- इसी प्रकार संखडि (जीमनवार और मृत्युभोज) को जानकर 'ये कृत्य करणीय हैं, चोर मारने के योग्य है और नदी सुतीर्थ (उत्तम घाटवाली) है, इस प्रकार न कहे । (यदि प्रयोजनवश कहना पड़े तो) तो संखड़ी को संखड़ी बोले, चोर को पणितार्थ (धन के लिए प्राणों की बाजी लगाने वाला) कहै और नदी का घाट प्रायः समतल है, ऐसा कहे।