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पंचम पिण्डेषणा अध्ययन
परी-निकले तब संजति समय हेर, परवेस कर लखि समय फेर ।
असमय कों वरज भिक्ष सोय, आचरै समय को समय जोय ॥
अर्थ भिक्षु भिक्षा काल के समय पर भिक्षा के लिए निकले और समय पर लौट आये । अकाल को छोड़कर जो कार्य जिस समय का हो, उसे उसी समय करे ।
परी- विनु समय चलत हो भिक्षु आप, नहिं समय निहारत कच्छ आप ।
निज मातम कों करि दुखित जोय, फिर बुरो कहत हो गांव सोय ॥
अर्थ-हे भिक्षो, तुम अकाल में जाते हो, और काल की प्रतिलेखना नहीं करते, अर्थात् गोचरी के समय का ध्यान नहीं रखते हो, अतः तुम अपने आपको क्लान्त (खेद-खिन्न) करते हो और संन्निवेश (गाँव) की भी निन्दा करते हो। (कि इस गांव में आहार नहीं मिलता)।
वोहा-छते काल मुनिवर चर, कर सु पौरुस चाहि ।
जो न मिले, सोच न तो, सहै जानि तप ताहि ।। अर्थ-भिक्षु भिक्षा-काल में भिक्षा के लिए जावे, पुरुषकार (पुरुषार्थ परिश्रम) करे, फिर भी यदि भिक्षा न मिले तो उसका सोच न करे, किन्तु आज सहज में ही तप हो गया, ऐसा विचार कर भूख को समभाव से सहन करे ।
दोहा-ऊंच-नीच पंछी-प्रमुख, जुटे जीव अन-हेत ।
तिन सनमुख जावै नहीं, निकस जतन - समेत ॥ अर्थ-इसी प्रकार गोचरी के लिए जाते समय मार्ग में चुग्गा चुगने के लिए आये हुए हंस-कबूतर आदि ऊंच जाति के और काक-गिद्ध आदि नीच जाति के प्राणी एकत्र जुटे हों, तो उनके सन्मुख न जावे, किन्तु जिस प्रकार से उन्हें त्रास न पहुंचे उस प्रकार से यतना-पूर्वक जावे ।
चौपाई-- संजति गयो गोचरि हि जोय, काहू थल बैठे नहिं सोई ।
अथवा बैठि सु कोठक थानक, कहत लगै नहिं कोई कथानक ।
अर्थ-गोचरी के लिए गया हुआ साधु न कहीं बैठे और न कहीं खड़ा रहकर कथा-वार्ता आदि ही करे ।