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छठा महाचारकथा अध्ययन
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दोहा - तिनमें पहिलो थानक एहा, बेली निपुन अहिंसा सोई,
महावीर उपदेस्यो जेहा । सब भूर्तान में संजम होई ॥
अर्थ- भगवान महावीर ने उन अठारह स्थानों में पहिला स्थान अहिसा का कहा है । इसे उन्होंने अनन्त सुखों को देने वाली के रूप में देखा है । सर्वप्राणियों के प्रति संयम रखना अहिंसा हैं ।
( १०-११ )
जन्तु जहान । तथा अनजान ॥
दोहा चर अथवा बावर अहें, जेते हमें हनावे तिनहं नहि, जान सकल जंतु जीवन चहैं, मरन चहै नहि कोय । घोर प्रानिवध ताहितें, वरजत संजति लोय ॥
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अर्थ - लोक में जितने भी त्रस अथवा स्थावर प्राणी हैं, निर्ग्रन्थ साधु जान या अजान में न उनका हनन करे और न पर से करावे ।
सभी जीव जीना चाहते हैं, मरना कोई नहीं चाहता। इसलिए जीव-घात को भयानक जानकर निर्ग्रन्थ उसका त्याग करते हैं ।
( १२ - १३ ) चौपाई - अपने तथा अपर के हेतु, कोप-काज वा डर के हेतु । परपीड़क असत्य नह कहिये, नह पर सों कहलाना चहिये ।। मृषा वचन हू लोकनि माहीं, सब साधुनि करि निन्दित आहीं । सबको अविसवास - विस्तारन, मृषावाद तजिये तिहि कारन ॥
अर्थ - निग्रन्थ साधु को चाहिए कि वह अपने या दूसरों के लिए क्रोध से, या भय से पर-पीड़ाकारक एवं असत्य वचन न बोले और न दूसरों से बुलवाये । इस लोक में मृषावाद सब साधुओं द्वारा गर्हित ( निन्दित ) है । और वह प्राणियों के लिए अविश्वसनीय है । अतः निर्ग्रन्थ साधुजन असत्य न बोलें ।
( १४–१५ )
चौपाई - चेतन तथा अचेतन कोई अधिक होय, अलप हु वा होई । तृण हू ले न दंत-शोधन को, विनु जाचे अधिकारी जन को ।। गहे न आप साधुजन ताकों, और हु कों न गहावहि वाकों । और हु बाकों गहि ले ही, ते न मलो जानत हैं तेही ॥