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छठा महाचारकथा अध्ययन
(५१-५२-५३) नाराचछन्द- कटोरिका ज़ कांसि की कि थाल कासि को लिये,
तथैव कुंर माटि को अहार तासु में किये। पुनश्च पान हू किये गृहस्थ भाजनानि में, मुनी अचारतें सुभ्रष्ट होत हैं जहान में ॥ अरंभ शीत नीर को परे जु पात्र घोवते, मरंत जन्तु यों तहाँ असंजमाहि जोवते । तहां न कल्पनीय पूर्व पच्छकर्म ओगते,
तदर्थ ही निग्रन्थ ना गृहस्थ-पात्र भोगते । अर्थ- जो गृहस्थ के कांसे के प्याले-कटोरे, कांसे का थाल आदि पात्र अथवा मिट्टी आदि के बने कुड आदि में रखे-परोसे गये- अशन-पान आदि को खाता-पीता है, वह श्रमण साधु के आचार मे भ्रष्ट होता है । क्योंकि उक्त पात्रों को सचित्त जल से धोने में और उस धोवन के फेंकने से प्राणियों की हिंसा होती है। ज्ञानियों ने वहां असंयम देखा है । गहस्थ के पात्र में भोजन करने पर पश्चात्कर्म (पीछे पात्रों का धोना-मांजना) और पुरःकर्म (साधु के भोजन से पूर्व उनके लिए पात्रों को धोना आदि) की संभावना है । यह निर्ग्रन्थ के लिए कल्प्य नहीं है, इसलिए वे गृहस्थ के पात्र में भोजन नहीं करते हैं।
(५४-५५) चौपाई- भद्रासन पलंग चौपाई, आसालक आसन सुखदाई ।
इन पर बैठे सोये जोई, अनाचरित आर्यनि को होई॥ बुद्ध-वचन-आराधन-हारे, कारन ते कबहुक जो धारे ।
पलंग पीठ गादी भद्रासन, विन प्रतिलेखे ग्रहै न आसन ।
अर्थ-आर्य मुनिजनों के लिए आसन्दी (वेत की वनी कुर्सी, मूढा), पलंग, मांचा और आसालक (सहारेवाला आसन पर बैठना या सोना अनाचाररूप है। ज्ञानियों की आज्ञा के अनुसार कार्य करने वाले निर्ग्रन्थ अपने योग्य आसन्दी, पलंग, आसन और पीढ़े का प्रतिलेखन किये बिना उन पर न बैठे और न सोवे ।
(५६-५७) चौपाई- ए सब आसन तम-जुत आही, मुसकिल सों प्रतिलेखे जाही ।
याते आसंदी र पलंगा, आदिन कों बरजत है संता ।। गोचरि-हेतु गयो घर माही, चित जिहि बैठि रहन को चाही। ऐसो अनाचार-जत होई, फल अबोध पावत है सोई॥