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छठा महाचारकथा अध्ययन
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अर्थ आसन्दी आदि गंभीर छिद्रवाले होते हैं, उनमें रहे हुए प्राणियों का प्रतिलेखन करना कठिन होता है । इसलिए आसन्दी और पलंग आदि पर बैठना या सोना वर्जित किया है । भिक्षा के लिए गया हुआ जो मुनि गृहस्थ के घर में बैठता है, वह आगे कहे जाने वाले अबोधि-कारक अनाचार को प्राप्त होता है ।
(५८-५९)
चौपाई - ब्रह्मचरज पर विपदा आवं, प्रानि हनं संजम हनि जावं । जाचक जन बाधा पुनि पावे, घर-स्वामी हिय रोस भरावं ॥ नारी जन शंका हिय लहई । दूरहि तं तजिये यह कामा ||
ब्रह्मचरज की बाड़ न रहई, यह कुसील- बाढ़न को ठामा,
अर्थ – गृहस्थ के घर में बैठने से ब्रह्मचर्य को विपत्ति ( हानि ), प्राणियों का वध होने पर संयम का घात, भिखारियों के अन्तराय और घर वालों को क्रोध उत्पन्न होता है । शयनासनों पर बैठनेवाले मुनि का ब्रह्मचर्य असुरक्षित होता है, और स्त्रियों के संपर्क से लोगों को साधु के ब्रह्मचर्य में शंका उत्पन्न होती है । गृहस्थ के आसनों पर बैठना कुशीलवर्धक स्थान है, इसलिए मुनि इसका दूर से ही परित्याग करें
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(६०)
जाकी बेह जरा त जीरन, जो घिरचो है
रोग को पोरन । के तपसी, तीननि में कोई, गृह बैठन में दोस न होई ॥
अर्थ – जो साधु जरा से ग्रस्त हो, रोग से घिरा हो और दीर्घ तपस्वी हो, तो
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न तीनों में से कोई भी साधु (निर्बलता के कारण थकान मिटाने के लिए) गृहस्थ के घर में बैठ सकता है ।
चौपाइ
चौपाई
बोहा
(६१-६२ - ६३–६४)
सोई ॥
रोगी तथा अरोगी होई, स्नान करन चाहत है जोई । तो आचार उलंघन होई, संजमहीन कहावत पोली भूमि दराउन माहीं, ए सूक्षम प्राणो गन आहीं । स्नान करत जद्यपि जल प्रासुक, तिनह बहावत है वह भिक्षुक ।। तायें ते नहि म्हावत धीरा, सोरे वा ताते हू नीरा । आजीवन मोसन प्रन-कारी, विनु सिनान विचरत व्रत धारी ॥ न्हान तथा तन कबटन, कबहुँ आचरत नाहि । चंदन केसर कुंकुमह, लोधादिक न लगाहि ॥