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सप्तम वाक्यशुद्धि अध्ययन
(१)
लोटक- चतुभेद कहे खलु बानिय के, मतिमान भली विधि जानिय के । तु के वरतावनि सोखि घरं, दुयकों सब भाँति नहीं उच्चरं ॥१॥
अर्थ - प्रज्ञावान् मुनि चारों भाषाओं को जानकर दो के द्वारा विनय (शुद्ध वचन प्रयोग) सीखे और दो को सर्वथा न बोले ।
(२)
तोटक सच है, पर बोलन जोग नहीं, सच-झूठ, तु केवल झूठ कही । जिनदेव न सेवन जाहि करो, न कहै मतिवंत जु बानि बुरी ॥
अर्थ – जो अवक्तव्य-सत्य, जो सत्य- मृषा, जो मृषा और जो (असत्यामृषा ) भाषा बुद्धों के द्वारा अनाचीर्ण ( आचरण करने के अयोग्य ) कही है उसे प्रज्ञावान् मुनि न बोले ।
(३–४)
रोला छन्द - सत्य तथा व्यवहार दोष-वजित कोमल पुनि,
लखि के संशय-रहित भने भाषा मति-धर मुनि । ऐसे अरथ रु और हु जे अविचल सुख-हारक, बोल सुसत वा झूठ वह हु वरजं धृति-धारक ।।
अर्थ - प्रज्ञावान् मुनि असत्यामृषा ( व्यवहारभाषा ) और सत्य भाषा- जो
उसे सोच-विचार कर बोले । वह धीर अथवा इसी प्रकार के दूसरे अर्थ को प्रति(मोक्ष) की विघातक है, चाहे वह सत्याअमृषा (मिश्र) भाषा हो अथवा सत्यभाषा हो, उसे सत्य महाव्रतधारी बुद्धिमान् साधु न बोले ।
अनवद्य ( निर्दोष) मृदु और सन्देह-रहित हो, पुरुष सावद्य और कर्कशता-युक्त अर्थ को, पादन करने वाली जो भाषा, शाश्वत सुख
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