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छठा महाचारकथा अध्ययन
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अर्थ-जो रोगी या निरोग साधु स्नान करने की अभिलाषा करता है, उसके आचार का उल्लंघन होता है और उसका संयम नष्ट हो जाता है। स्नान करने की भूमि पोली हो या दरार-युक्त हो तो उसमें सूक्ष्म प्राणी होते हैं । प्रासुक जल से स्नान करने वाला भिक्ष भी उन्हें जल से प्लावित कर देता है । (इससे उनकी हिंसा अवश्य होती है ।) इसलिए मुनि ठंडे या गर्म जलसे स्नान नहीं करते हैं । वे जीवनपर्यंत घोर अस्नानव्रत का पालन करते हैं। मुनि शरीर का उबटन करने के लिए कल्क (चन्दनादि सुगन्धी द्रव्यों का चूर्ण), लोध्रवृक्ष का चूर्ण, पिट्ठी और कमल-केसर आदि का उपयोग भी नहीं करते हैं।
(६५-६६-६७) सर्वया- नग्न सरीर सुमुडित सोस बड़े नख रोम को धारन हारे ।
काम-विकार भयो उपशांत सु क्यों सिनगार विभूसन धारे ॥ जो मनगार लगै सिनगार में बांधत कर्म सचोकन मारे ।
जातें परं भवसागर भीम में दुष्कर जासु को पायनो पारे । चौपाई- लोन बिभूषा में मन ऐसो, बुद्ध देव मानत है तेसो ।
बहुत दोस-पूरित है जोई, त्राता संत न सेवत सोई॥
अर्थ-नग्न शरीर रहने वाले, द्रव्य-भाव से मुडित मस्तक और दीर्घ रोम और नखवाले तथा मैथुन-सेवन से उपशान्त चित्तवाले मुनि को शरीर-शोभा से क्या प्रयोजन है ? शरीर-शोभा से साधु चिकने (दारुण) कर्म को बाँधता है, उससे वह दस्तर संसार सागर में गिरता है। शरीर की शोभा में संलग्न मनको ज्ञानी पुरुष
भूषा के सदृश हो चिकने कर्म के बन्धन का हेतु मानते हैं, यह शरीर-शोभा बहुत धिक सावद्य-प्रचुर है । यह छह काय के त्राता मुनियों द्वारा आसेवित नहीं है । (अतः साधु को शरीर-शोभा करने का विचार भी मन में नहीं लाना चाहिए।)
कवित्त --
(६८-६९) मोहमति नासी, दृष्टि विमल प्रकासी, भए
संजय सरलता में, तपस्या में रत हैं। पूरव के पाप तोरे, नये पाप नहीं जोरे,
आतम विशुद्ध करिवे को करें कृत हैं।