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छठा महाचारकथा अध्ययन
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पत्र, शाखा (वृक्ष - डाली) और पंखे से हवा करना तथा दूसरों से हवा कराना नहीं चाहते हैं । जो भी वस्त्र, पात्र, कम्बल और पाद प्रोंछन हैं उसके द्वारा वे वायुकाय की उदीरणा नहीं करते, किन्तु यतनापूर्वक उसका उपयोग करते हैं । इसलिए वायुकाय के इस समारम्भ को दुर्गति-वर्धक दोष जानकर मुनिजन यावज्जीवन के लिए वायुकाय के समारम्भ का त्याग करते हैं ।
दोहा
( ४१–४२ – ४३ )
हनं
मनतें वचतें कायतें, हनं न हरिता काय । संजति त्रिकरन जोगतं, जे हिंसत हरिता काय कों, नैन स दीठ अदीठ जे, तातें ऐसो दोस लखि, करं हरित आरंभ को,
माय ॥
सुसमाधित विविध त्रस जंत ।
आलित
रहंत ॥
तासु दुरगति वरधन - हार ।
आजीवन
परिहार ॥
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अर्थ - - सुसमाधिवन्त साघुजन मन से, वचन से, काय से, इन तीन योगों से तथा कृत कारित अनुमोदना इन तीन करणों से वनस्पति की हिंसा नहीं करते हैं । वनस्पति की हिंसा करता हुआ मनुष्य उसके आश्रित अनेक प्रकार के चाक्षुष (दृश्य), अचाक्षुष ( अदृश्य ) स और स्थावर जीवों की हिंसा करता है । इसलिए इसे दुर्गति-वर्धक दोष जानकर साधु यावज्जीवन के लिए वनस्पति के समारम्भ का त्याग करे ।
(४४–४५ --- ४६)
कायतें, हनं नहीं
दोहा - मनते वचतं सजति त्रिकरण जोगते, जे सुसमाधित हिसत हू सकायकों, हनं विविध त्रस नेन स दीठ अदीठ जे, आस्त्रित
तातें ऐसो दोस लखि, कोजे त्रस आरंभ को,
प्रसकाय ।
भाय ॥
जंत ।
तासु रहंत ॥
दुरगति वरघन हार । आजीवन
परिहार ॥
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