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छठा महाचारकथा अध्ययन
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अर्थ-संयमी मुनि सजीव या निर्जीव, अल्प या बहुत वस्तु को, यहां तक कि दांतों का मल-शोधन करने के लिए तिनके को भी उसके स्वामी की आज्ञा के बिना स्वयं ग्रहण नहीं करते, दूसरों से भी ग्रहण नहीं कराते और ग्रहण करने वाले का अनुमोदन भी नहीं करते हैं ।
( १६ - १७)
बोहा
कौ थोक । मुनि लोक ॥
चौपाई - ब्रह्मचर्य भंजन भयकारी, जो प्रमाद सेवन, हित-हारी । भेद-थान-वरजक जगमाहीं, मुनिवर ताहि आचरत नाहीं ॥ यह अधर्म को मूल है, महादोष यातें मैथुन- संग को, वरजत हैं अर्थ — भेदस्थानकवर्जी - पापभीरु मुनि संसार में रहते हुए भी दुः सेव्य तथा प्रमादभूत रौद्र अब्रह्मचर्य का कदापि आचरण नहीं करते हैं । यह अब्रह्मचर्य अधर्म का मूल है तथा महादोषों का समूह है, इसलिये निर्ग्रन्थ इस मैथुन के संसर्ग का सर्वथा परित्याग करते हैं ।
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(१८-१९)
दोहा -- विड़ वा सागर- लोन घी, तिनको संचय न हि चहत, यह लोभहि की लगन है, वासी राखे सो गृही, अर्थ - जो ज्ञातपुत्र महावीर के वचनों में रत हैं, वे मुनि विडलवण (गोमूत्र आदि में पकाकर तैयार किया नमक ), उद्भेद्य लवण (समुद्र के पानी से बनाया गया सामुद्री नमक), तेल, घी और फाणित ( द्रव गुड़) को संग्रह करने की इच्छा नहीं करते । जो भी संग्रह किया जाता है, वह लोभ का ही प्रभाव है, ऐसा मैं मानता हूं । जो श्रमण किंचिन्मात्र भी संग्रह करने की इच्छा करते हैं, वह गृहस्थ हैं, प्रव्रजित नहीं । अर्थात् संग्रह का अभिलाषी पुरुष साधु कहलाने के योग्य नहीं है ।
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चोपाई
गलित गुडादि सनेह । वीर-वचन रत जेह ॥ मानत और हु लोय । सो संजति न हि होय ॥
( २० - २१ )
जदपि वसन भाजन विधि नाना, कंबल पग-पूंछन परिमाना । ते परिहरत करत मुनि धारन, केवल संजम - लाज - निवारन ॥ ताहि 'परिग्रह' कहि न पुकारो, ज्ञात-पुत्र जग-रच्छन- हारो । ममताभाव परिग्रह भाख्यौ, ऐसो महरिसिनि ने आल्यौ ॥