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पंचम पिण्डेषणा अध्ययन
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अर्थ — कदाचित् कोई एक मुनि विविध प्रकार के भोजन-पान पाकर और कहीं एकान्त में बैठकर अच्छे-अच्छे पदार्थ खाकर विवर्ण और विरस आहार को स्थान पर यह सोचकर लाता है कि 'ये श्रमण मुझे बड़ा आत्मार्थी और मोक्षार्थी समझें', संतोषी और प्रान्त (असार) भोजी समझें, रूखा-सूखा खाने वाला और प्राप्त जिस किसी भी वस्तु से सन्तुष्ट होने वाला समझें । तो वह पूजा का आर्थी यश का वांछक और मान-सन्मान की कामना करने वाला मुनि बहुत पाप का उपार्जन करता है और माया- शस्य को करता है ।
(३६)
और हू, जे मादक रस आहि ।
निज जस राखत साखि जुत, भिक्षुक पीवै नाहि ॥
दोहा - मदिरा मेरक
अर्थ - अपने संयम का संरक्षण करता हुआ साधु सुरा (जौ आदि की पिट्ठी से बनी मदिरा), मेरक (महुआ से बनी मदिरा) या अन्य किसी प्रकार का रस आत्मसाक्षी से न पीवे ।
(३७)
दोहा -पियं अकेलो चोर जो, मोहि न जानत कोय ।
लखिय, दोस तसु हाल पुनि, मोसों सुनिये सोय ॥
अर्थ – यहां मुझे कोई भी नहीं जानता है, यह विचारता हुआ यदि कोई अकेला मुनि एकान्त में स्तेनवृत्ति से ( चोरी-छिपे ) मदिरा को पीता है, तो उसके दोषों को देखो और मैं उसके मायाचार को कहता हूं सो सुनो ।
(३८)
दोहा-कपट झूठता मिक्ष के, लोलुपता बढ़ि जाय । अजस अतोस असाधुता, ताके सदा
रहाय ॥
अर्थ – मदिरा पान करनेवाले साधु के उन्मत्तता, मायाचारिता, मृषावादिता अपयश, अतृप्ति और असाधुता – ये दोष उत्तरोत्तर बढ़ने लगते हैं ।
( ३९ )
दोहा - उच्चट्यौ रहत सु चोर जिमि, कुमति करन निज तेइ । मरनंत हु तेसो कहूँ, सकत न संबर सेइ ॥
अर्थ - वह दुर्मति अपने दुष्कर्मों से चोर के समान सदा उद्विग्न रहता है । मदिरा - पायी मुनि मरणान्त-काल में भी संवर की आराधना नही कर पाता है । ( प्रत्युत दारुण दुष्कर्मों का आस्रव करता है) ।