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पंचम पिछेषणा अध्ययन
(४०) चौपाई- आचारजन अराधत ऐसो, बमनहुं को सेवत नहिं तसो । . .
गृही लोग हू गरहत वाकों, भली भांति जे जानत जाकों ।।
अर्थ-ऐसा मद्यपायी साधु न तो आचार्य की आराधना कर पाता है और न श्रमणों की भी । गृहस्थ भी उसे शराबी जानते हैं, इसलिए वे भी उसकी गर्दा-निन्दा करते हैं।
(४१) बोहा-या विधि जे अवगुन भजें, तजं सु गुन गन जेय ।
मरनंत हु तेसो कहूं, संवर सकत न सेय ।। अर्ष-इस प्रकार से अवगुणों का सेवन करने वाला और गुणों का त्याग करने वाला मुनि मरणान्त-काल में भी संवर की आराधना नहीं कर पाता है । (प्रत्युत महा दुष्कर्मों का आस्रव करता है ।)
(४२) चोपाई- बुद्धिमान तपकों आचर, सरस मधुर भोजन परिहर ।
मद प्रमाद राचे नहिं जोय, अति उत्कृष्ट तपस्वी सोय ॥
अर्थ-किन्तु जो बुद्धिमान तपस्वी साधु मधुर पौष्टिक रस का त्याग करता है, मद्य-पान से विरत और प्रमाद से रहित होता है, वह अति उत्कृष्ट साधु है ।
(४३)
चौपाई - देखहु तुम ताके कल्यान, विविध साधु-पूजित सो जान ।
बहुत अरब जस-संजुत तेह, गुन वरनों-मोसों सुनि लेह ।।
अर्थ-ऐसे उक्त उत्कृष्ट साधु का अनेक साधु-जनों से प्रशंसित विशाल, अर्थसंयुक्त कल्याण स्वयं देखो और मैं उनका कीर्तन करूंगा सो सुनो।
बोहा-या विधि जो गुन-गन मज, तज सु औगुन जेय ।
मरनंत हु तेसो मुनो, सके सु संवर सेय ।। अर्थ-इस प्रकार गुणों का सेवन करने वाला और अवगुणों का वर्जन करने वाला शुद्ध भोजी साघु मरणान्त-काल में भी संवर की आराधना करता है।