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पंचम पिण्डेषणा अध्ययन
चौपाई- माचारजह अराधत ऐसो, बमनहुं को पुनि सेवत सो। .. .
गृही लोग ह पूजत ताकों, भली भांति जे जानत जाकों ॥ . अर्ष-उक्त गुणों का धारक साधु आचार्य की आराधना करता है और श्रमणों की भी । गृहस्थ भी उसे शुद्धभोजी मानते हैं और इसलिए वे उसकी पूजा करते हैं।
चौपाई - वचन-चोर तप-चोर कोई, रूप-चोर पुनि जो नर होई ।
भाव-चोर आचार हु चोरा, लहै देव किलविस-गति घोरा ॥
अर्ष-जो साधु तप का चोर, वाणी का चोर, रूप (वेष) का चोर, आचार का चोर और भाव का चोर होता है वह किल्विषिक देव-योग्य कर्म करता है, अर्थात् मरकर किल्विषिक जाति के नीच देवों में उत्पन्न होता है।
(४७) चौपाई . तहां देवगति हूं को पाई, उपज देव किलविसी जाई ।
तहं हन जानि सकत सो भावा, 'का करिके यह फल मैं पावा' । अर्थ-किल्विषिक देवों उत्पन्न होकर और देवपर्याय पाकर भी वहां वह यह नहीं जान पाता कि यह मेरे किस कर्म का फल है ?
(४८) चोपाई-- वा गति तें चर्षि के पुनि वहई, मेस - मूक - मानवता लहई ।
नारक वा तिरित को जोनी, जहाँ बोधि दुरलभ है-होनी ।।
अर्थ- उस देवपर्याय से च्युत होकर यहां मनुष्य गति में आकर एडमूकता अर्थात् भेड़ों के समान गूगेपन को प्राप्त करता है, अथवा तिर्यंचगति में जन्म लेता है
और (पुनः पाप करके) नरक में जाता है जहाँ पर बोधि (सम्यक्त्व) की प्राप्ति होना अत्यन्त दुर्लभ है।
चौपाई -- या प्रकार वूषन लखि एई, जातपुत्र ने वरने जेई ।
माया मिरषावाद लगारा, वरजें बुद्धिमान अनगारा ॥
अर्थ-इस प्रकार के दोषों को देखकर ज्ञातपुत्र महावीर ने कहा - मेधावी मुनि अणुमात्र भी माया-मषा न करें अर्थात् न मायाचार करें और न झूठ बोलें।