________________
पंचम पिण्डेषणा अध्ययन
११३
अर्थ - वन्दना करते हुए किसी भी स्त्री या पुरुष, बालक या वृद्ध से साधु किसी भी प्रकार की याचना न करे । तथा आहारादि न देने पर उससे कठोर वचन न कहे ।
(३०)
ठहरई ॥
चौपाई - नह नमते पर रोस न आनं, बंदन तें महिमा नहिं मानं । या प्रकार अन्वेषण करई, ताको संजम अचल अर्थ — जो गृहस्थ वन्दना न करे, उस पर क्रोध न करें और यदि राजामहाराजा आदि बड़े पुरुष वन्दना करें तो अभिमान भी न करे । इसप्रकार गोचरी का अन्वेषण करनेवाले साधु का श्रमणपना निर्मल और स्थिर रहता है ।
( ३१ - ३२ )
चोपाई - कबहूं कोई अकेलो संजति, करं सरस अइस अहारनिताकों ढाके, ऐसो लोभ गुरु को यह दिखलाऊं जोई, वे सब लेयं, बेय नहि मोई । सो पेटार्थी है निज धापी, करं पाप बहु धर्म-ऊपापी ॥ सो संतोष होन ही होई, जाय सकं निरवान न सोई । तातें साधु बने संतोषी, न्यायवृत्ति सों निज तन-पोषी ॥
भोजन की प्रापति । ऊपज्यों जाके ॥
अर्थ - कदाचित् कोई एक मुनि सरस आहार पाकर उसे आचार्य आदि को दिखाने पर वह स्वयं न ले लेवे – इस लोभ से छिपा लेता है तो वह पेटार्थीअपना ही पेट भरने वाला लोभी साधु बहुत पाप का उपार्जन करता है । ऐसा असं.षी साधु निर्वाण (मोक्ष) नहीं पा सकता ।
(३३ – ३४ – ३५)
चोपाई- जो पे आप अकेलो जाई, विविध पान भोजन कों पाई ।
भले भले चुन आपहि खावं, विवरन विरस लिये थल आवै ॥
ऐसे भाव हिये वह आनं, ए सब स्रमन संतोषी सुतोष मुनि एहा, रूक्षवृत्ति अस असार जो भक्षणहारो, खरो पूजार्थी जस- वांछक जोई, चहे बहुत पाप अर्जन सो करई, माया सो पार्क कैसे निरबान, जाके
मोहि यों जाने । वरजित सुख - नेहा ।। मुकति-पद- इच्छन- हारो । मान-सम्मानि सोई ॥ सल्ल अपन- उर धरई । है ऐसा छल-मान ॥
----