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पंचम पिण्डेषणा अध्ययन
चौपाई- आगल परिघ दुआर-किवारा, गहि करि के इनको धारा ।
ठहर नहीं संजती सोई, गोचरि-हंतु गयो है जोई।।
अर्ष-गोचरी के लिए गया हुआ साधु आगल-भोगल को, फलक (किवाड़ों को रोकने वाला काठ) को, द्वार को अथवा किवाड़ को अवलम्बन कर कहीं पर नहीं ठहरे।
(१०-११) चौपाई- ब्राह्मण नमन कुपन वा कोई, जो वरिख बुख पोरित होई ।
ए अन-जल को कारन पाई, जतन करत जोए मुनिराई । तिन को लंघिन कर प्रवेसा, दीखत में ठहरे नहि लेसा ।
तब एकान्त पान को जाई, तैसी ठौर साघु ठहराई॥
अर्थ-भक्त या पान के लिए उपसंक्रमण करते हुए (घर में जाते हुए) श्रमण (बौद्ध साधु), ब्राह्मण, कृपण अथवा वनीपक (भिखारी) को लांघ कर संयमी मुनि गृहस्थ के घर में प्रवेश न करे। गृहस्वामी और श्रमण आदि की आंखों के सामने खड़ा भी न रहे, किन्तु एकान्त में जाकर वहां खड़ा रहे।
(१२) चौपाई- जाचक वा दानी वा दोई, कर अप्रीति भावना कोई ।
अथवा जिन-प्रवचन-लघुताई, होय तहां जो सन्मुख जाई॥
अर्थ-उक्त भिक्षओं को लांघकर घर में प्रवेश करने पर उन भिक्षाथियों को, गृहस्वामी को अथवा दोनों को अप्रीति हो सकती है, और जिन-प्रवचन की लघुता होती है।
(१३) बोहा-दिये, नटे वा तिन हटे, तिनको निपटं मोर ।
असन-पान-हित संचर, तब संजति ता ओर ॥ मर्ष-गृहस्वामी द्वारा उन याचकों को भिक्षा दे देने पर अथवा निषेध कर देने पर जब वे याचक गृहस्थ के घर से लौटकर चले जावें, तब साधु भोजन या पान के लिए वहां जावे।