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चतुर्थ षड्जीवनिका अध्ययन
चलने, खड़ा रहने, बैठने या लेटने वाले का अन्य पुरुष का न अनुमोदन करे, यावज्जीवन के लिए तीन करण, तीन योग से-मन से वचन से काय से- न करूंगा, न कराऊंगा और करने वाले का अनुमोदन भी नहीं करूंगा। हे भगवन्. मैं भूतकाल में किये गये वनस्पति समारम्भ के पाप से निवृत्त होता हूं, उसकी निन्दा करता हूं, गर्दा करता हूं और आत्मा का व्युत्सर्ग करता हूं।
(२३) कवित्तसंयत विरत होय प्रत्याख्यात-पाप होय, भिक्षुणी या भिक्ष होय, दिन में या रात में, जागते या सोवते, अकेले जात आवते, अथवा अनेक जन होवें संग साथ में। कोट हो, पतंग हो, कीड़ी हो या भौंरा हो, हाथ पांव बाहु आदि उर
उदर शीस में, बग्त्र पात्र पाद-प्रोंछन, पीठ या फलक पै, तिनको प्रतिलेख वह सदा सावधानी में। दोहा-परिमार्जन प्रति-लेखना, कर छोड़े एकान्त ।
कमी कर ना भूल से, जीवनि का संघात ॥१॥ अर्ष-संयत विरत प्रतिहत-प्रत्याख्यात-पापकर्मा भिक्षु या भिक्षुणी दिन में या रात में, सोते या जागते, एकांत में या परिषद् में . कीट, पतंग, कुन्थु या पिपीलिका हाथ, पैर, बाहु, उरु (जांघ), उदर, शिर, वस्त्र, पात्र, रजोहरण, गोच्छग (पात्र को ढांकने का वस्त्र), उन्दुक, दण्डक (लकड़ी, डंडा), पीठ (बैठने का पीढ़ा, बाजौठ), फलक (लेटने का तख्ता) । शैय्या या संस्तारक (विस्तर) पर तथा इसी प्रकार के किसी अन्य उपकरण पर चढ़ जावे तो सावधानीपूर्वक धीरे-धीरे प्रतिलेखन कर, प्रमार्जन कर उन्हें वहां से हटा कर एकान्त में रख दे, किन्तु उनका संघात न करे
' जिससे उन प्राणियों को पीड़ा पहुंचे, ऐसी रीति से नहीं रखे ।
दोहा-अजतन तें चलतो हन, प्रानि भूत गन जोय ।
पाप करम ता करि बंध, ताको कटु फल होय ॥ अर्थ-अयतना-पूर्वक चलने वाला त्रस और स्थावर जीवों की हिंसा करता है, उससे पाप कर्म का बन्ध होता है, वह उसके लिए कटु फल देने वाला होता है।