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चतुर्थ षड्जीवनिका अध्ययन भगवन मैं भूतकाल में की गई वायकाय की विराधना के पाप से निवृत्त होता हूं, उसकी निन्दा करता हूँ, गर्दा करता हूं और आत्मा का व्युत्सर्ग करता है।
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कवित्तसंयत विरत होय प्रत्याख्यात-पाप होय, भिक्ष णी या भिक्ष होय, दिन में या रात में, जागते या सोवते, अकेले जात आवते, अथवा अनेकजन होवें संग-साथ में । बीज रूढ़ जात आदि हरित सचित्त पत्र, शाखा खंध छाल फल-फूल में,
और हू अनेक भेद कहे जो हैं सूत्र-माहि, जीव रहें तिनके भी सर्व अंग मूल में । बोन होय, रूढ़ होय, जात या हरित होय, सचित्त पत्र शाखा आदि कोई
हरियाली हो इन पं रखे पीठ आसन फलक आदि, वस्त्र विस्तरादि अन्य कछु द्रव्य हो। इन पं न आवे जावे, बैठे सोवै नाहि कभी, घुन लगे काठ आदि का न उपयोग हो, बनस्पति जाति जेती, घात न करे कवापि, उनकी सुजतना में सदा सावधान हो। उक्त पाप कर नाहि, पर से कराय नाहि, करते हू की अनुमोदना सबा त्याग है, मन वच काय आप त्रिकरण त्यागि पाप वनस्पति-घात से विमुक्त धर्म पाग है। पूरव के जो दोष होंय, त्यागि तिन्हें शुद्ध होय प्रतिक्रम कर आप आप ही कू निन्दं है, गर्दा करि बार-बार भार पाप का उतार, आत्मा का आप मांहि व्युत्सर्ग कर है।
अर्थ-वह संयत, विरत, प्रतिहत-प्रत्याख्यात-पापकर्मा भिक्षु या भिक्षुणी, दिन में या रात में, सोते या जागते, एकान्त में या परिषद् में- बीजों पर, बीजों पर रखी वस्तुओं पर, रूढ़ बीजों पर (वीज जब भूमि में से बाहर निकलता है, तब उसे रूढ़ कहा जाता है । यह बीज अंकुर के बीच की अवस्था है, अंकुर निकलने के पूर्व स्फुटित बीजों पर) रूढ़ बीजों पर रखी हुई वस्तुओं पर, जात (पत्ते आने की अवस्था वाली) वनस्पति पर, जात वनस्पति पर स्थिति वस्तुओं पर, हरित पर, हरित पर रखी वस्तुओं पर, छिन्न वनस्पति के अंगों पर, छिन्न वनस्पति के अंगों पर रखी वस्तुओं पर, अंडों पर, एवं घुन लगे सचित्त कोल आदि काठ पर न चले, न खड़ा रहे, न बैठे, न लेटे, दूसरों को न चलावे, न खड़ा करे, न बैठावे, न लेटावे तथा