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पंचम पिण्डेषणा अध्ययन
(८२-८३) पहरी-- जो संत गोचरी-हेतु जाय, तित ही भोजन को कर चाय ।
तो सूनो घर वा भीति पाय, ता मूल प्रामु थल परिलिहाय । मतिवंत संत आज्ञा हि पाय, सो ढकित थान उपयोग लाय । मलि-मातिहिं हापनि कों सुझारि, तिहिं ठौर कर संजति अहार ।।
अर्थ-गोचरी के लिए गया हुआ मुनि कदाचित आहार करना चाहे तो प्रासुक कोठा या भीति के मूल-भाग को देखकर, उसके स्वामी से अनुज्ञा लेकर ऊपर से छायावाले एवं संवृत्त (पार्श्व भाग से आवृत्त) ऐसे स्थल पर बैठे और हस्तक (पूजनी) से शरीर एवं स्थान का प्रमार्जन कर मेधावी संयत यहां भोजन करे ।
(८४-८५-८६) परी-तित करत तासु आहार जोय, गुठली तृन कंटक काठ होय ।
कंकर वा सो और कोय, ताकों उठाय फैके न सोय ॥ भलि-भांति परि एकान्त जाय, एकान्त जाय महि अचित पाय । पडिलेहन करि जतना-समेत, परठे सु परठि प्रतिक्रमन लेत ॥
अर्थ-वहाँ भोजन करते हुए मुनि के आहार में गुठली, कांटा, तिनका, काठ का टुकड़ा, कंकड़ या इसी प्रकार की कोई दूसरी वस्तु निकले तो उसे उठाकर न फेंके, मुंह से न थके किन्तु हाथ में लेकर एकान्त में जावे । एकान्त में जाकर उचित भूमि को देख, यतना-पूर्वक उसे परिस्थापित करे । परिस्थापित करने के पश्चात अपने स्थान में आकर प्रतिक्रमण करे ।
(८७-८८) पडरी- जो चहै उपाश्रय मांहि आय, भोजन करतो संअति सुभाय ।
तो सुध आहार-जुत तहां आय, भोजन को भूमि हि पडिलिहाय ।। गुरु के समीप संजति सुजान, परवेस कर अति विनय आन । इरियापथिका करि करह ध्यान, पडिकमे जयाविधि के प्रमान ।।