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पंचम पिण्डेषणा अध्ययन
अर्थ-उच्च-जल (जिसका रूप, रस, गन्ध अच्छा हो), अवच-जल (जिसका रूप, रस, गन्ध अच्छा न हो) अथवा वार-धोवन (गुड़ के घड़े का धोवन) संसेदिम (आटे का घोवन), चावल का धोवन, यदि अधुनाघौत (अभी तत्काल का धोया हुआ) जल हो तो उसे मुनि नहीं लेवे । अपनी बुद्धि से या देखने से, पूछकर या सुनकर जान ले कि यह धोवन चिरकाल का है और निःशंकित हो जाय तो उसे जीव-रहित और परिणत जानकर संयमी मुनि ले लेवे । यह जल मेरे लिए उपयोगी होगा या नहीं-ऐसा सन्देह हो तो उसे चखकर लेने का निश्चय करे।
(७८) परी- थोरो सो चाखन हेतु एह, मेरे हानि पर नोर देह ।
अति खाटो सड़ियल मति स होय, जो प्यास बुझाइ सकत न मोय ॥
अर्थ-दाता से कहे-चखने के लिए थोड़ा-सा जल मेरे हाथ में दो। बहुत खट्टा, दुर्गन्ध-युक्त और प्यास बुझाने में असमर्थ जल लेकर मैं क्या करूंगा ? .
(७६) पद्धरी- अति खाटो सड़ियल नीर होय, नहिं प्यास बुझावन-सकत सोय ।
तो वेनहारि-सों कहै सोय, ऐसो नहिं कलपत नोर मोय ।।
अर्थ-यदि वह जल बहुत खट्टा, दुर्गन्ध-युक्त और प्यास बुझाने में असमर्थ हो, तो देती हुई स्त्री से कहे कि ऐसा यह जल मुझे नहीं कल्पता है।
(८०-८१) रो- ऊपर जु कह्यौ तस नीर होय, विनु मन, विनु इच्छा गहेउ सोय ।
यो साधु आप नहिं कर पान, दूजे हू कों नहि फर दान ।। विनु जीव ठोर एकान्त जाय, करिके पडिलेहन जतन लाय । वह नीर परठि ता और देय, तिहि परठि प्रतिक्रमणहि करेय ।।
अर्थ-यदि वह जल अनिच्छा या असावधानी से लिया हो तो उसे न स्वयं पीवे और न दूसरे साधुओं को देवे । किन्तु एकान्त में जा, अचित्त भूमि को देख, यतनापूर्वक उसे परिस्थापित करे। परिस्थापित करने के पश्चात अपने स्थान में जाकर प्रतिक्रमण करे।