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पंचम पिण्डेषणा अध्ययन
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अर्थ-कदाचित् भिक्षु शय्या (उपाश्रय) में आकर भोजन करना चाहे तो भिक्षा सहित वहां आकर स्थान की प्रतिलेखना करे । उसके पश्चात् विनयपूर्वक उपाश्रय में प्रवेश कर गुरु के समीप उपस्थित हो 'ईर्यापथिकी' सूत्र को पढ़कर प्रतिक्रमण (कायोत्सर्ग) करे।
(८९-९०) पडरो-- आवन-जावन की क्रिया माहि, अरु भात-पानि-हित लगे ताहि ।
क्रम-पूर्वक सो संजति सुजान, अतिचार अखिल उर धर ध्यान ॥ सो सरल बुद्धि, उद्वेग-हीन, अविचलितचित्त संजति प्रवीन । गुरु-निकट निवेदन कर तेह, निहिं भांति • पदारथ गहे जेह ॥
मर्ष-आने-जाने में और भक्त-पान लेने में लगे समस्त अतिचारों को यथाक्रम से याद कर, ऋजुप्रज्ञ (सरल-बुद्धि) और अनुद्विग्न (उद्वेग-रहित) साधु विक्षेपरहित चित्त से गुरु के समीप आलोचना करे । जिस प्रकार से भिक्षा ली हो उसी प्रकार से गुरु को कहे।
(६१-६२-६३) परी भलि-मांति निवेदन भयो जोन, पहिले पाछे वा किये तीन ।
पुनि कर प्रतिक्रम तासु सोप, पुनि ध्यान चितवन कर जोय ॥ दोहा -- अहो दिखाई जिननि ने मुनि की राह अदोस ।
साधु-देह धारन तवा, कारन साधन मोख ॥ नमोकार कहि ध्यान तज, जिन-संस्तव पढ़ि लेय ।
पूरन करि सन्माय मुनि, छिन विसरामहि सेय ।। अर्थ-सम्यक प्रकार से आलोचना न हुई हो अथवा पहिले-पीछे की हो (आलोचना का क्रमभंग हुआ हो) उसका फिर प्रतिक्रमण करे । पुनः शरीर को स्थिर कर यह चिन्तवन करे-अहो, कितना आश्चर्य है-जिनदेव ने साधुओं की मोक्षसाधना के हेतुभूत संयमी शरीर की धारणा के लिए निर्दोषवृत्ति का उपदेश दिया है। इस चिन्तनमय कायोत्सर्ग को नमस्कार-मंत्र के द्वारा पूर्ण कर जिन-संस्तव (चतुर्विशति तीर्थंकरों की स्तुति) करे । फिर स्वाध्याय की प्रस्थापना (प्रारम्भ) करे । पुनः क्षणभर विश्राम करे ।