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पंचम पिण्डेषणा अध्ययन
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(१४) दोहा-गोचरि सट सट नहिं चले, बोलत हँसत न जाहि ।
सदा कहूं नाव नहीं, ऊंच-नीच कुल माहिं ।। अर्ष-गोचरी के समय साधु दड़बड़ करता-दौड़ता हुआ न जावे । हंसता हुआ और बोलता हुआ भी न जावे । किन्तु सदा ऊंच-नीच ग्राह्य कुल में ईर्यासमिति पूर्वक गोचरी के लिए जावे ।
बोहा-भोत, रोखा, द्वार पुनि, संधि नोर-घर जान ।
इनहि न जोव चालतो, त्यागै शंका-यान । अर्ष-भिक्षा के लिए घूमता हुआ साधु आलोक (जाली-झरोखे), पिग्गल (टीवाल के छेद) द्वार, सन्धि (भीतों का जोड़ अथवा चोरों के द्वारा किये गये भीत के छेद) और जल-भवन (पानी रखने का स्थान) को टकटकी लगाकर न देखे और इन जैसे सभी शंका के स्थानों के देखने का परित्याग करे।
बोहा-भूप-भवन, गृहपति-भवन, रक्षक रहस जु आहि ।
दुख-दायक जो थान सो तर्ज दूरतें ताहि ॥ गोचरी के लिए जाता हुआ मुनि राजा का महल, गृहपतियों के भवन, कोटपाल आदि आरक्षकों के निवास और रहस्य (गुप्त) स्थान का दूर से ही परित्याग करे।
(१७) पाई- कुल निषिद्ध में धसिए नाहीं, जिहि वरज्यो ह तजिए ताहीं ।
नेह-रहित कुल प्रविसिय नाही, प्रविसिय प्रीतिवंत कुल-माहीं॥ ___ अर्थ-मुनि प्रतिऋष्ट (शास्त्र-निषिद्ध) कुल में प्रवेश न करे, मामक (गृहस्वामी द्वारा मना किये) घर में न जावे, प्रीति और प्रतीति रहित कुल में भी प्रवेश न करे । किन्तु प्रीति और प्रतीति वाले कुल में ही गोचरी के लिए प्रवेश करे ।
दोहा-सन-पट या चिकतें ढक्यौ, नहीं उधार द्वार ।
विनु आयसु के आप ही, खोले नहीं किवार ।।
अर्ष-मुनि गृहस्वामी की आज्ञा के बिना सन-पाट से या चिक आदि से उके द्वार को न उघाड़े और न किवाड़ों को खोले ।