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पंचम पिण्डेषणा अध्ययन
(५५-५६) चौपाई- मुनि-निमित्त जो होय बनायो, अथवा बेके दाम मंगायो ।
अधकरमी अबोस में सान्यो, प्रामादिक तें मुनि-हित आन्यो । मुनि-सुधि आये और मिलायो, वीन निबल से छीन जु पायो । निज-हित, मुनि-हित मेलि बनायो, यो सन्देह जु मुनि-मन आयो। तो मुनि पूछे उद्गम ताको, काके काज, कियो किहि याको । संका-हीन सुन जो ताही, प्रहै साधु, नाहीं तो नाहीं ॥
अर्थ-औद्देशिक (साधु के उद्देश्य से बनाया गया), क्रीतकृत (दाम देकर खरीदा गया), पूतिकर्म (आषाकर्म-मिश्रित आहार), आहृत (पर घर या प्रामान्तर से लाया गया), अध्यवतर (अपने लिए आहार बनाते समय साधु की याद आने पर उसमें और अधिक बनाया गया) प्रामित्य (दूसरों से उधार लिया गया आहार), मिश्रजात (अपने लिए बनाये जा रहे आहार में साधु के लिए और अधिक चावल
आदि मिलाना) आहार साधु के लिए त्याज्य है । साधु दाता से आहार का उद्गम पूछे कि यह किसलिए बनाया है, किसने बनाया है ? दाता का उत्तर सुनकर यदि शंका दूर हो जाय और आहार शुद्ध ज्ञात हो तो साधु उसे ग्रहण करे, अन्यथा नहीं।
(५७--५८) चौपाई-बाय स्वाय भोजन अरु पाना, सुमन बीज हरितनि सों साना ।
ऐसो भोजन पान जु आही, संजति कों कलपत सो नाहीं ॥ देनहारि-सों मुनि कह सोई, ऐसो नहिं कलपत है मोई । सो मैं यह आहार न लेऊ, जो कल्प ताही कू सेऊ॥
अर्थ-यदि अशन, पान, खाद्य और स्वाद्य पुष्प-बीज और हरियाली से उन्मिश्र हों तो वह भक्त-पान संयतों के लिए अकल्पनीय है, इसलिए मुनि देनेवाली स्त्री से कहे कि ऐसा आहार मेरे लिए कल्पता नहीं है।
(५६-६०) चौपाई-बाय स्वाय भोजन अह पाना, जल सजीव पर रखा जु जाना ।
कोरी नगरे पर पा होई. मुनिहिं न कलपत अन-जल सोई।। देनहारि-सों मुनि कह सोई, ऐसो नहिं कलपत है मोई । सो मैं यह आहार न लेऊ, जो कल्प ताही सेकं ॥