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पंचम पिण्डेषणा अध्ययन
चौपाई- ब्रह्मचर्य के धारनहारे, वेश्या के पड़ोस को टारे ।
बान्त ब्रह्मचारी मन माही, वा पल विकृत चित्त है जाही॥
अर्थ-ब्रह्मचर्य की रक्षा के लिए ब्रह्मचारी साधु वेश्याओं के मुहल्ले में गोचरी को न जावे । क्योंकि वहां जानेवाले दान्त (इन्द्रिय-जयी) साधु के भी विस्रोतसिका हो सकती है, अर्थात् चित्त चंचल हो सकता है।
चौपाई- वेश्यादिक के पान अजोगा, छिन छिन मये तासु संजोगा ।
व्रतनि मांहि पीड़ा उपजाही, ह संदेह नमनता-माही ।।
अर्थ-- अनायतन (अयोग्य स्थान) में विचरण करने वाले साधु के (वेश्याओं को मुहल्ले में बार-बार आने-जाने से) उनके संसर्ग होने के कारण व्रतों की पीड़ा (विनाश) और श्रमणपने में संशय हो सकता है।
(११)
बोहा-तातें याकों जानि के, दुरगति-बादन दोस ।
मुनि इकंत-धारी त पातर - पंच - परोस । अर्थ-इसलिए इसे दुर्गति बढ़ाने वाला दोष जानकर एकान्त (मोक्षमार्ग) का अभिलाषी मुनि वेश्याओं के मोहल्ले में गोचरी के लिए न जावे, किन्तु उपर जाने का परित्याग करे ।
(१२) बोहा- मत्त बलद, सिसु-खेल-पल, सुरभि प्रसूता स्वान ।
हय गय कलह र समर के, तजिय दूरतें पान । अर्थ- जहाँ कुत्ता हो, नव-प्रसूता (थोड़े समय की व्याई हुई) गाय हो, उन्मत्त बैल हो, मदोन्मत हाथी और घोड़ा हो, जहां बच्चे खेल रहे हों, जहां पर कलह और युद्ध हो रहा हो, ऐसे स्थानों को दूर से ही परित्याग करे ।
(१३) बोहा-नहिं हरसित, नहिं आकुलित, नत उन्नत हुइ नाहि ।
नपाभाग इंद्रियनि बमि, मुनि विचर मग-माहि ॥ अर्थ-मूनि न उन्नत होकर (ऊंचा मुख कर), न अवनत होकर (बहुत मक कर), न हर्षित होकर और न व्याकुल होकर यथायोग्य इन्द्रियों का दमन कर चले।