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पंचम पिण्डेषणा अध्ययन
लिए अकल्पनीय होता है, इसलिए मुनि उरा देने वाली स्त्री से कहे कि ऐसा आहारपान मुझे नहीं कल्पता है ।
चौपाई - कल्प्य अकल्पनीय वा होई, देहारि-सों मुनि कह सोई,
(४४)
यों संकित जल- भोजन जोई । ऐसो नह कलपत है मोई ॥
चौपाई
अर्थ - जो भक्त पान कल्प और अकल्प की दृष्टि से शंका-युक्त हो, उसको देने वाली स्त्री से कहे - ऐसा आहार -पान मेरे लिए नहीं कल्पना है ।
( ४५ – ४६ )
जल-घट पाहन पेसनि ढाका, लोढा लेप लाख करि ढाका । पोढा तथा और कछु होइ, ढकित उघारि साधु-हित सोई ॥ dनहारि - सों कह मुनि सोई, ऐसो नहीं कल्पत है मोई । सो मैं यह आहार न लेऊ, कल्पं जो ताही कूं सेऊ ॥
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ऐसो नहि कलपत है मोई । कल्पे जो ताही कू सेऊ ॥
अर्थ - जल- कुम्भ, चक्की पीठ, लोढा, मिट्टी का लेप ओर लाख आदि श्लेप द्रव्यों से पिहित ( ढंके, लिपे और मूंदे हुए) पात्र का श्रमण के लिए मुंह खोलकर यदि कोई स्त्री आहार देवे या किसी से दिलावे तो उस देने वाली स्त्री से साघु कहे कि ऐसा आहार मेरे लिए नहीं कल्पता है । भावार्थ-साधु के देने के लिए उस समय किये गये उक्त कार्य दोषकारक हैं ।
(४७-४८)
: पाई - खाद्य स्वाद्य भोजन अरु पाना, दाना हेतु-कृत, सुना कि जाना । ऐसो भोजन पान जु माहो, सो संजति कों कलपत नाहीं ॥
नहारि सों कहि मुनि सोई, सो में यह माहार न लेऊं,
अर्थ 'यह अशन, पानक ( पेय वस्तु), खाद्य और स्वाद्य पदार्थ दानार्थ तैयार
किया हुआ है । यह मुनि जान लेवे, तो वह भक्तपान संयतों के लिए कल्पनीय नहीं है, इसलिए उस देनेवाली स्त्री से मुनि कहे कि ऐसा आहार मेरे लिए नहीं कल्पता है ।