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पंचम पिण्डेषणा अध्ययन
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(३८)
बोहा-खावन हारे बोय जो, ताहि निमंत्रन देय ।
जो तह होय अदोस तो, सो दोनों मुनि लेय ॥ अर्ष-उस घर में भोजन करने वाले दोनों ही व्यक्ति यदि निमंत्रित करें तो मुनि उस दिये जाने वाले आहार को यदि एषणीय हो तो ले ले।
__ (३६) बोहा-गरमवती निज-हित रचे बहुविध भोजन-पान ।
तिनहिं तजे, भोगे बर्च तिनहि गहै मुनि जान ॥
अर्थ-गर्भिणी स्त्री द्वारा स्व-निमित्त बनाया हुआ विविध प्रकार का अशनपान वह खा रही हो तो मुनि उसके लेने का त्याग करे। हां, खाने के बाद यदि अनुच्छिष्ट-बच जाय तो ले लेवे ।।
(४०-४१) चौपाई- पूरे मासनि गरभिन कोई, बैठे उठे साधु-हित सोई ।
अथवा बहुरि खरी सो होई, संजति-जोग न अन-जल सोई । या प्रकार देतिहि कह सोई, ऐसो नहिं कलपत है मोई ।
सो मैं यह आहार न लेऊ, कल्पै जो ताही को सेऊ ॥
अर्थ-कालमासवती (पूरे दिन वाली) गर्भिणी स्त्री खड़ी हो और श्रमण को भिक्षा देने के लिए कदाचित् बैठे, अथवा बैठी हो और खड़ी हो जाये तो उसके द्वारा दया जाने वाला भक्त-पान संयमी जनों के लिए अकल्पनीय है। इसलिए मुनि देनेनाली उस गभिणी से कहे कि यह अशन-पान मेरे लिए नहीं कल्पता है।
(४२-४३) चौपाई- बालक बालिकाहि पय पावति, रोवति तिनहि गरि जो मावति ।
देने लगे जल-मोजन जोई, मुनिकों नहिं कलपत है सोई॥ देनहारि-सों कह मुनि सोई, ऐसो नहि कलपत है मोई ।
सो मैं यह आहार न लेऊ, कल्प जो ताही को सेऊ ॥
मर्ष-बालक या बालिका को स्तन-पान कराती हुई स्त्री उसे रोते हुए छोड़कर नीचे रखकर भोजन-पान लावे और देने लगे तो वह भोजन-पान संयतों के