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पंचम पिण्डेषण अध्ययन
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छप्पय
(३३-३४) जल भीने अरु चीकने, सचित्त रज-भरे होय कर, मिट्टि खार हरताल, लवन हिंगुल मनसिल-भर । अंजन फिटफरि गेर चून भूसीसों सान,
सेत पीत मृत्तिका लगी कर सों जो जान ॥ फल-खंड हाथ व्यंजन लिए, व्यंजन अलिपित जो रहै,
या विधि लखि दोस निवारिफं, मुनि अदोस अन-जल गहै ।।
अर्थ · इसी प्रकार जल से आई हाथ से, स्निग्ध हाथ से, तथा सचित्त रजकण, मृत्तिका, क्षार, हरिताल, हिंगुल, मैनसिल, अंजन, नमक, गेरु, पीली मिट्टी, सफेद मिट्टी, फिटकरी, तत्काल पीसा हआ आटा, तत्काल कटी हुई धान, उसके भूसे या छिलके और फल के छोटे टुकड़ों या हरे पत्तों के रस से सने हुए कलछी और वर्तन से भिक्षा देनेवाली स्त्री से कहे कि इस प्रकार आहार-पान मेरे लिए नहीं कल्पता है।
दोहा-असंसृष्ट कर कुरछि-सों, भाजन सों जो वेतु ।
ताहि न चाहै होत जो, पच्छाकरम को हेतु ॥ अर्थ-जहां पश्चात्-कर्म का प्रसंग हो, वहां असंमृष्ट (भक्त-पान से अलिप्त) हाथ, कलछी और बर्तन से दिया जाने वाला आहार मुनि न लेवे । (जिस वस्तु का हाथ आदि पर लेप लगने पर उसे पीछे धोना पड़े, उसे पश्चात्कर्म दोप कहते हैं।)
दोहा संसृष्टे कर कुरछि अरु, भाजन सों जो देय ।
होय तहां निरदोस तो पहन कर मुनि सोय ॥ अर्थ-संसृष्ट-भक्त-पान से लिप्त हाथ, कलछी और बर्तन से दिया जाने वाला आहार यदि एपणीय हो तो मुनि ले लेवे ।
(३७)
चौपाई- दो जन भोजन करते होंय, एक बुलावे मनि को जोय ॥
जो दूजे का भाव न होय, मुनि तस असन गहै नहि कोय ।
अर्थ-जिस घर में दो व्यक्ति भोजन कर रहे हों. उनमें से यदि एक व्यक्ति निमंत्रण करे अर्थात् आहार लेने के लिए प्रार्थना करे (परन्तु दूसरा चुप रहे) तो मुनि वहां आहार न ले । दूसरे के अभिप्राय को देखे, यदि उसे साधु को देना अप्रिय लग रहा हो तो न ले और प्रिय लगता प्रतीत हो तो ले ले।