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पंचम पिण्डेषणा अध्ययन
(४)
चौपाई - गड्ढा विसम पंथ परिहरई, ठूंठ तथा कादे तें टरई । सरिताविक उलधि नहिं जावं, छतो पंथ दूजो जो पावं ॥
अर्थ - दूसरे अच्छे मार्ग के होते हुए गड्ढे, ऊबड़-खाबड़ भू-भाग, कटे हुए सूखे पेड़ या अनाज के डंठल और पंकिल (कीचड़ - युक्त) मार्ग को टाले तथा संक्रम (जल या गड्ढे को पार करने के लिए काष्ठ या पाषाण - रचित पुल) के ऊपर से न जावे ।
(५)
जो संजमी गॅल यहि धावं, सो आखड़े तथा परि जावं । प्रानि भूत की हिंसा करई, त्रस अथवा थावर संहरई ॥ अर्थ - मार्ग से जाते हुए साधु का यदि वहां पैर फिसल जाय अथवा खड्ढे में गिर जाय, तो द्वीन्द्रियादि त्रस प्राणियों की तथा एकेन्द्रिय स्थावर प्राणियों की हिंसा करता है । अर्थात् ऐसे मार्ग से चलने पर आत्म-पीड़ा और जीव-विराधना की संभावना रहती है ।
चौपाई
चौपाई - तातें ऐसे पंथ न जाये, और पंथ जोलों वह पावं,
(६)
संजत जो समाधि मन लावं । जतनवंत वाही मग जावे ॥
अर्थ – इसलिए दूसरे मार्ग के होते हुए सुसमाहित (सावधान) संयमी साघु उक्त मार्ग से नहीं जावे । यदि कदाचित् दूसरा अच्छा मार्ग न हो तो उस मार्ग से ft यतनापूर्वक जावे ।
(७)
सोरठा- छार र तुस ढेर, गोबर और जु कोयला ।
रज- साने पग फेर, इनको लंघन नह करं ॥
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अर्थ – संयमी मुनि सचित्त रज से भरे हुए पैरों से कोयले, राख, भूसे और गोबर के ढेर को लांघ कर न जावे ।
(4)
दोहा - बरखा बरसत नहि चलं, कुहरा परतहु नाहि ।
महावात के बाजते, परत पतंग न जाहि ॥
अर्थ - वर्षा बरस रही हो, कुहरा गिर रहा हो, महावायु चल रही हो और मार्ग में पतंगिया आदि अनेक प्रकार के जीव इधर-उधर उड़ रहे हों तो ऐसे समय में साधु गोचरी के लिए न जावे ।