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चतुर्थ षड्जीवनिका अध्ययन
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मुर (राख-भस्म आदि से ढकी अग्नि ) अचि (मूल अग्नि से विच्छिन्न ज्वाला, दीपक का अग्रभाग) ज्वाला (प्रदीप्ताग्नि से सम्बद्ध अग्नि- शिखा ) अलात ( अधजली लकड़ी की आग ) शुद्धाग्नि ( इन्धन - रहित अग्नि) उल्का ( आकाश से गिरने वाली गाज, बिजली आदि ) का न उत्सेचन ( सींचना, तेज करना) करे, न घट्टन ( अन्य काठ आदि से घर्षण - मर्दनादि) करे, न उज्ज्वालन ( पंखे आदि से आग को तेज करना) और न निर्वाण (बुझाना) करे । न दूसरों से उत्सेचन करावे, न घट्टन करावे, न उज्ज्वालन करावे, और. न बुझवावे । तथा उत्सेचन, घट्टन, उज्ज्वालन या निर्वाण करने वाले अन्य का अनुमोदन न करे । यावज्जीवन के लिए तीन करण, तीन योग सेमन से वचन से काय से न करूंगा, न कराऊंगा और करने वाले का अनुमोदन भी नहीं करूंगा । भगवन्, मैं भूतकाल में किये गये अग्नि समारम्भ के पाप से निवृत्त होता हूं, उसकी निन्दा करता हूं, गर्हा करता हूं और आत्मा का व्युत्सर्ग करता हूं ।
(२१)
कवित्त
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फूंके
संयत विरत होय, प्रत्याख्यात पाप होय, मिक्षुणी या भिक्षु होय, दिन में या रात में, जागते या सोवते, अकेले जात आवते, अथवा अनेक जन होवें संग-साथ में । चंवर से या पखे से, बीजने या पात्र से, शाखा मोर- पिच्छकादि लेय आप हाथ में, वस्त्र से या हस्त से, मुख से या अन्य से, न हवा करे कभी काहू काल में ॥ उक्त पाप करं नाहि पर से कराय नाहि, करते हू की अनुमोदना सदा त्यागे है, मन वच काय आप त्रिकरण त्यागि पाप, वायु-घात से विमुक्त होय धर्म पागे है । पूरव के जे दोष होंय, त्यागि तिन्हें शुद्ध होय, प्रतिक्रम कर आप आप ही कूं निन्दे है, गर्हा करि बार बार, भार पाप का उतार आतमा का आप मांहि व्युत्सर्ग करे है ॥
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अर्थ - वह संयत विरत प्रतिहत पापकर्मा प्रत्याख्यात- पापकर्मा भिक्षु, या भिक्ष ुणी दिन में या रात में, सोते या जागते, एकान्त में या परिषद् में - चामर से, पखे से, वीजने से, पत्ते से, शाखा ( वृक्ष की डाली) से, शाखा भंग डालों के टुकड़े) से, मोर पंख से, मोर-पिच्छी से, वस्त्र से, वस्त्र के पल्ले से हाथ से या मुख से, अपने शरीर के पसीने को या बाहिरी धूल आदि को न स्वय फूंके न हवा करे, दूसरों से न फुंकावे, न हवा करावे, फूंकने वाले या हवा करने वाले अन्य पुरुष का अनुमोदन न करे, यावज्जीवन के लिए तीन करण तीन योग से - मन से वचन से काय से- न करूंगा, न कराऊंगा और करने वाले का अनुमोदन भी नहीं करूंगा ।