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चतुर्थ षड्जीवनिका अध्ययन
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कर हरी घास आदि पर आने वाले जल कण) शुद्धोदक ( आकाश से बरसने वाला जल) से भीगे शरीर अथवा जल से भीगे वस्त्र, जल से स्निग्ध शरीर, अथवा जल से स्निग्ध वस्त्र का न आमर्श (एक बार स्पर्श) करे, न संस्पर्श (बार-बार स्पर्श) करे, न आपन ( दबाना, एक बार निचोड़ना) करे, न प्रपीडन (बार-बार दबाना या निचोड़ना) करे, न आस्फोटन (थोड़ा या एक बार झटकना) करे न प्रस्फोटन ( बहुत या बार-बार झटकना) करे, न आतापन (धूप में एक बार या थोड़ा सुखाना) करे, न प्रतापन ( धूप में अनेक बार या बहुत देर तक सुखाना) करे। दूसरों से न जल-ओस आदि का आमर्श करावे, न संस्पर्श करावे, न आपीडन करावे, न प्रपीड़न करावे, न आस्फोटन करावे, न प्रस्फोटन करावे, न आतापन करावे, न प्रतापन करावे । आमर्श, संस्पर्श, आपीडन, प्रपीडन, आस्फोटन, प्रस्फोटन, आतापन या प्रतापन करने वाले का अनुमोदन न करे, यावज्जीवन के लिए तीन करण तीन योग से मन से बचन
काय से न करूंगा, न कराऊंगा और करने वाले का अनुमोदन भी नहीं करूंगा । हे भगवन्, मैं भूतकाल में किये गये जल-समारम्भ के पाप से निवृत्त होता हूं, उसकी निन्दा करता हूं, गर्हा करता हूं और आत्मा का व्युत्सर्ग करता हू ।
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कवित्त
संयत विरत होय, प्रत्याख्यात पाप होय, भिक्षुणी या भिक्ष होय, दिन में या रात में, जागते या सोवते, अकेले जात- आवते, अथवा अनेक जन होवें संग-साथ में । अर्गानि अंगारे मुर्मुर अच ज्वाला तारे, अलात शुद्ध अग्नि अथ उल्कादि अग्नि में, करं न उत्सेचन, घट्टनादि ना करें, बुझाय न दबाय ताहि, पाप तर्ज मन में ॥ उक्त पाप करें नाहि, पर से कराया नांहि करते हू की अनुमोदना सदा त्यागं है, मन वच काय आप त्रिकरण त्यागि पाप, अग्नि-घात से विमुक्त होय धर्म पागे है । पूरव के जे दोष होंय, त्यागि तिन्हें शुद्ध होय प्रतिक्रम कर आप आप ही कूं निन्दे है, गर्हा करि वार-बार, भार पाप का उतार आतमा का आप माँहि व्युत्सगं करें है ।। अर्थ - वह संयत, विरत, प्रतिहत- पापकर्मा, प्रत्याख्यात - पापकर्मा भिक्षु या भिक्षुणी, दिन में या रात में सोते या जागते, एकान्त में या परिषद् में - अग्नि
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( लोह - पिण्ड में प्रविष्ट स्पर्शग्राह्य तेजस्) अगारे ( ज्वाला - धूम - रहित धधकते कोयले)