________________
चतुर्थ ममीकाका अध्ययन
३९ अर्थ-वह संयम (संयम में उपस्थित) विरत (हिंसादि से निवृत्त) प्रतिहतपापकर्मा (अतीतकाल-सम्बन्धी पापों का त्यागी) प्रत्याख्यात पापकर्मा (भविष्यत्काल के लिए पापों का त्यागी) भिक्ष या भिक्ष णी, दिन में या रात में, सोते या जागते, एकान्त में या परिषद् में-पृथ्वी भित्ति शिला, ढेले, सचित्त रज से संसृष्ट काय अथवा सचित्त रज से संसृष्ट वस्त्र का हाथ-पांव काष्ठ खपाच, अंगुली शलाका अथवा शलाका-समूह से स्वयं न आलेखन (कुरेदना) करे, न विलेखन (पुनः पुनः कुदेरना या खोदना) करे, न घट्टन (हिलाना-चलाना) करे और न भेदन (तोड़ना-फोड़ना) करे, इसी प्रकार दूसरे से न आलेखन करावे, न विलेखन करावे, न घट्टन करावे, और न भेदन करावे । तथा आलेखन विलेखन घट्टन या भेदन करने वाले अन्य पुरुष का अनुमोदन करे । यावज्जीवन के लिए नीन करण तीन योग से -- मन वचन काय से न करूंगा, न कराऊंगा और करने वाले का अनुमोदन भी नहीं करूंगा। हे भगवन, 4 भूतकाल में किये गये पृथ्वी-समारम्भ के पाप से निवृत्त होता हूं, उसकी निन्दा करता हूं, गर्दा करता हूं और आत्मा का व्युत्सर्ग करता हूँ।
(१६)
कवित्त-- संयत विरत होय, प्रत्याख्यात-पाप होय, भिक्षुणी या भिक्ष होय, दिन में या रात में, गगते । सोवते, अकेले जात आवते, अथवा अनेक जन होवें संग-साथ में। ‘ज ओसबिन्दु बर्फ कुंअरादि ओला गर्क, दूबा-बिन्दु नभो-अम्बु गीला वस्त्र आप में, गरा भी न स्पर्श करे, दाबे न निचोड़े ताहि, माड़े न सड़ावे ताहि सुखावे न धूप में। उक्त पाप कर नाहि, पर से कराय नाहि, करते है की अनुमोदना सदा त्याग है, मन वच काय आप त्रिकरण त्याग पाप, जल-घात से विमुक्त होय धर्म में पाग है। पूरव के जो दोष होंय, त्यागि तिन्हें शुद्ध होय, प्रतिक्रम कर आप आप ही निन्न है, गीं कर बार-बार भार पाप का जुटार, आतमा का आपमाहि व्युत्सर्ग कर है ॥
अर्थ-वह संयत विरत प्रतिहत-पापकर्मा और प्रत्याख्यात-पापकर्मा भिक्ष या भिक्ष णी दिन या रात में सोते या जागते, एकान्त में या परिषद् में उदक (कूप, तालाब आदि का जल) ओस (रात में आकाश से पड़ने वाली सूक्ष्म-बिन्दु) हिम (बर्फ या पाला) महिका (धूआधार कुहरा) करक (ओला-गड़ा) हरतणुक (भूमि से निकल