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चतुर्थ षड्जीवनिका अध्ययन
(२७) चौपाई- जिन में तप-प्रधान गुन पावै, सरलमतो संगम रति लावें ।
खमी परीसह-विजयी जोई, सुलम सुगति ऐसनिको होई ॥
अर्थ-जो श्रमण तपोगुण में प्रधान, सरल मति, क्षान्ति तथा संयम में रत और परीषहों को जीतने वाला होता है, उसके लिए सुगति सुलभ है।
(२८) दोहा-जिनको तप संजम क्षमा, शील हिये ते भाय ।
पाछे हू दीक्षित भये, अमर-भवन ते नाय ।। अर्ष-जिन्हें तप, संयम, क्षमा और ब्रह्मचर्य प्रिय हैं, वे शीघ्र ही देव-भवनों (स्वर्ग) को प्राप्त होते हैं, भले ही वे पिछली अवस्था में प्रवजित हुए हों।
बोहा-लहिके दुरलभ समनता, ए खट जीवनिकाय ।
। सदा जतन सम-वरसि रखि, विकरन ते न सताय ।।:: . .:.
अर्थ-दुर्लभ श्रमण भाव को प्राप्त कर सम्यक् दृष्टि और सदा सावधान श्रमण इस षड्जीवनिकाय की कर्मणा-मन वचन और काय से विराधना न करे । ऐसा मैं कहता हूं।