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चतुर्ष पजीवनिका अध्ययन
(२२) दोहा-जब सब व्यापी मान अर, बरसन को पा लेत ।
तब जानत जिन केवली, लोक अलोक-समेत ॥ अर्थ-जब वह सर्वत्र-गामी केवलज्ञान और केवलदर्शन को प्राप्त कर लेता है, तब वह केवली जिन होकर लोक और अलोक को जान लेता है।
(२३) दोहा--जब जानत जिन केवली, लोक अलोक समेत ।
तब जोगनिकों रोकिके, गिरि घिरता पा लेत ।। अर्थ-जब वह केवली जिन होकर लोक-अलोक को जान लेता है, तब वह योगों का निरोधकर शैलेशी (पर्वत-सदृश स्थिर) अवस्था को प्राप्त होता है।
(२४) बोहा-जब जोगनिकों रोकि के, गिरि-थिरता पा लेत ।
तब करमनि को नास करि, नीरज शिवपद लेत ॥ अर्थ-जब वह योग का निरोध कर शैलेशी अवस्था पा लेता है, तब वह कर्मों का क्षय कर नीरज (कर्म-रज-विमुक्त, हो सिद्धि को प्राप्त करता है।
(२५)
दोहा-जब करमनि को नास करि, नीरज शिव पद लेत ।
तब सु लोक-सिर पिति लिये, सास्वत सिद्ध सुवेत ॥ अर्थ-जब वह कर्मों का क्षय कर रज-विमुक्त सिद्धि को प्राप्त करता है, तब वह लोक के मस्तक पर स्थित शाश्वत सिद्ध होता है।
(२६) चौपाई-- सुल-आस्वादक श्रमण जु होई, साता को उतकंठित जोई ।
आगम-वचन लघि बहु सोवै, जो विनु जतन धरन-कर धोवै ।। गारव तीनों जाके होंय, श्रमण-क्रिया में शिथिल जु सोय ।
ऐसो होय आचरन जाको य उत्तम गति दुर्लभ है ताको ॥
अर्थ-जो श्रमण सुख का रसिक, साता के लिए आकुल, अकाल में सोनेवाला और हाथ-पैर आदि को बार-बार धोने वाला होता है, उसके लिए सुगति दुर्लभ है।