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तृतीय क्षुल्लकाचारकथा अध्ययन
(१४)
दोहा - बुसकर
करि, दुःसहनि
किते करम-रज रहित हुइ
सहि, कइक जात सुर लोग । सिद्धि संयोग ॥
लहत
अर्थ - दुष्कर तपों को करते हुए, दुःसह उपसर्गों और परीषहों को सहते हुए उन निर्ग्रन्थों में से कितने ही तो आयु पूर्ण कर देवलोक जाते हैं और कितने ही निर्ग्रन्थ नीरज - कर्मरज-रहित हो सिद्ध होते हैं ।
(१५)
दोहा संजम सों तपसों सुकति-पंथ प्रापत
अर्थ – संयम (संबर) एवं तप श्री-रक्षक संयमी मुक्ति मार्ग (मोक्ष) को प्राप्त कर लेते हैं ।
तथा पूर्व करम करि हान |
मये
रच्छक लह निरवान ॥
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के द्वारा पूर्वबद्ध कर्मों का क्षय करके वे