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चतुर्थ षड्जीवनिका अध्ययन दूसरे से अदत्त वस्तु का ग्रहण नहीं कराऊंगा, और अदत्त वस्तु ग्रहण करने वालों का कभी अनुमोदन भी नहीं करूंगा। यावज्जीवन के लिए तीन करण, तीन योग से -मन से, वचन से, काय से-न चोरी करूंगा, न कराऊंगा और करने वाले का अनुमोदन भी नहीं करूंगा। भगवन् मैं भूतकाल के अदत्तादान से निवृत्त होता हूं, उसकी निन्दा करता हूं, गर्दा करता हूं और आत्मा का व्युत्सर्ग करता हूं। हे भगवन्, इस प्रकार से मैं अदत्तादान के त्यागरूप तीसरे महाव्रत में उपस्थित हुआ हूं।
(१४)
चतुर्थ मैथुनविरमण महाव्रत चौपाई- चौथे महाव्रत में भगवंत, मैथुन से मैं होऊ विरंत ।
भगवन, मंचन तीन प्रकार, उसका मैं करता परिहार ॥१॥ हो वह मानुष या पशु-संग, हो या देव-देवियों संग । सेऊं मैथुन स्वयं न देव, पर से भी न कराऊं सेव ॥२॥ जो जन मैथुन सेवन करें, उनको अनुमोदन परिहरें । जाव जीव यों तीन प्रकार, मन वच काया से परिहार ॥३॥ करूं न कराऊ मैथुन-सेव, अनुमोदन भी त्यागू देव । यो तिय-पुरुष मिथुन के काम, त्यागि बनू मैं शुद्ध ललाम ॥४॥ पूरव भोग जु भोगे होय, निदा गरिहा करि तर्नु सोय ।
चौथे महावत में इह भांत, भया उपस्थित हे जगतात ॥५॥
अर्थ-भन्ते, इसके पश्चात् चौथे महाव्रत में मैथुन से विरमण होता है। नगवन्, सब प्रकार के मैथुन का प्रत्याख्यान करता हूं-देव-सम्बन्धी, मनुष्य-सम्बन्धी अथवा तिर्यंच-सम्बन्धी मैथुन का मैं स्वयं सेवन नहीं करूंगा, दूसरों से मथुन सेवन नहीं कराऊंगा और मैथुन सेवन करने वालों का अनुमोदन भी नहीं करूंगा। यावब्जीवन के लिए तीन करण, तीन योग से-मन, वचन, काय-से न करूंगा, न कराऊंगा और करने वाले का अनुमोदन भी नहीं करूंगा । भन्ते, भूतकाल में किये गये मैथुन-सेवन से निवृत्त होता हूं, उसकी निन्दा करता हूं. गर्दा करता हूं और आत्मा का व्युत्सर्ग करता हूं । भगवन्, मैं चौथे महाव्रत में सर्व मथुन-सेवन से विरत होकर उपस्थित होता हूं।