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चतुर्थ षड्जीवनिका अध्ययन
चौपाई
बोलत मृषा जो कोई होय. करू न अनुमोदन में सोय । तीन योग त्रिकरण बसाय, मृषावाद करूं न कराय || ३॥ अनुमोदन भी कभी न करिहूं, सत्य वचन में भाव जु रखिहूं । पूरब दोष जु लागो होय, निन्दा गरिहा कर तजु सोय ॥४॥ दुतिय महाव्रत में इह भांत, भया उपस्थित हूं जगत्रात । मृषावाद - परिहार स्वरूप, दुतिय महाव्रत है ये अनूप ॥ ५ ॥
अर्थ - मन्ते ! इसके पश्चात् दूसरे महाव्रत में मृषावाद से विरमण होता है । भगवन्, मैं सर्व मृषावाद का प्रत्याख्यान करता हूं - क्रोध से, या लोभ से, भय से या हंसी से, मैं स्वयं असत्य नहीं बोलूंगा, दूसरों से असत्य नहीं बुलवाऊंगा और असत्य बोलने वालों का अनुमोदन भी नहीं करूंगा । यावज्जीवन के लिए तीन करण और तीन योग से - मन से, वचन से, काय से मृपावाद न करूंगा, न कराऊंगा और मृपा (असत्य) बोलने वाले का अनुमोदन भी नही करूंगा । भगवन् मैं भूतकाल के मृपावाद से निवृत्त होता हूं. उसकी निन्दा करता हूं, गर्हा करता हूं और आत्मा का व्युत्सर्ग करता हूं । भगवन्, इस प्रकार से मैं मृपावाद विरमरण स्वरूप दूसरे महाव्रत में उपस्थित हुआ हूं ।
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(१३)
तृतीय अदत्तादानविरमण महाव्रत
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तृतीय महाव्रत में भगवन्त, चोरी से मैं होऊ विरंत । विन दी सर्व वस्तुएं तजूं, जिससे चौर्य दोष से बचूं ||१|| गिरी पड़ी हों ग्राम-मशार, वन नगरादिक देश-विसार । अल्प मूल्य हों या बहुमूल, लघु होवें या होवें थूल ॥२॥ हों संचित, या होय अचित्त, स्वयं गहूं नहि कभी अदत्त । कहूं न परसे लेने काज, गिरी पड़ी तुम लेहु समाज || ३ || चोरी करता जो भी होय, अनुमोदन मी करू न सोय | जाव जीव यों तीन प्रकार, मन वच काया से परिहार ॥४॥ पूरव दोष जु लाग्यो होय, निन्दा गरिहा करि तजु सोय ।
तृतिय महाव्रत में इह मांत, भया उपस्थित हूं, जगतात ॥५॥
अर्थ – भन्ते ! इसके पश्चात् तीसरे महाव्रत में अदत्तादान से विरमण होता
है । हे भगवन्, मैं सर्व अदत्तादान का प्रत्याख्यान करता हूं - गांव में, नगर में या वन में कहीं भी अल्पमूल्य या बहुमूल्य, सूक्ष्म ( थोड़ी) या स्थूल ( बड़ी ) सचित्त या अचित्त, किसी भी प्रकार की अदत्त ( बिना दी ) वस्तु का मैं स्वयं ग्रहण नहीं करूंगा,