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चतुर्थ षड्जीवनिका अध्ययन
(१५) पंचम परिग्रहविरमण महाव्रत
चौपाई - पंचम महाव्रत में भगवंत, होऊ सब परिगह से विरंत । भगवन, परिग्रह विविध प्रकार, सबका में करता परिहार ॥१॥ वह हो ग्राम या नगर - मंझार, खेत बाग वन का विस्तार । अल्प सूक्ष्म जो आगम-मना, धन-धान्यादिक होवे घना ॥२॥ हो सचित्त या होय अचित्त, दासी-वास गृहादिक वित्त । नहीं स्वयं मैं परिग्रह गहूं, नहीं अन्य को प्रेरित करूं ॥ ३ ॥ परिग्रह को गहते जन जोय, करूं न अनुमोदन भी सोय । जाव जीव यों तीन प्रकार, मन वच काया से परिहार ॥४॥ पूरव दोष जु लाग्यो होय, निंदा गरिहा करि तजु सोय । पंचम महाव्रत में इह भांत, भया उपस्थित हूं जगजात ||५||
अर्थ – भन्ते, इसके पश्चात् पांचवें महाव्रत में परिग्रह से विरमण होता है । भगवन् मैं सर्व प्रकार के परिग्रह का प्रत्याख्यान करता हूं—गांव में, नगर में या अरण्य में कहीं भी अल्प या बहुत, सूक्ष्म या स्थूल, सचित्त या अचित्त - किसी भी परिग्रह का ग्रहण मैं स्वयं नहीं करूंगा, दूसरों से परिग्रह का ग्रहण नहीं कराऊंगा और परिग्रह को ग्रहण करने वालों का अनुमोदन भी नहीं करूंगा, यावज्जीवन के लिए तीन करण तीन योग से मन से, वचन से, काय से- न करूंगा, न कराऊंगा और करने वाले अन्य जनों का अनुमोदन भी नहीं करूंगा । भगवन्, मैं भूतकाल के परिग्रह से निवृत्त होता हूं, उसकी निन्दा करता हूं और आत्मा का व्युत्सर्ग करता हूं । मैं पांचवें महाव्रत में सर्व परिग्रह से निवृत्त होकर उपस्थित हुआ हूं ।
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छट्ठा रात्रि-भोजन- विरमण-व्रत
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धरू रात्रि-भुक्ति को मैं परिहरु । अशन पान खाद्य अरु स्वाद्य, ये मेरे निशि में हैं त्याज्य ॥ १ ॥ नहीं खिलाऊं पर को कभी, रात्रि-अशन से बचिहूं तभी । निशि में खाने की मैं भूल
करूं न अनुमोदन
अघ -मूल ॥२॥
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चौपाई - अब भगवन्, छट्ठा व्रत