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चतुर्थ षड्जीवनिका अध्ययन
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दोहा- शस्त्र-घात को छोड़कर, कहे वृक्षादि सचित्त ।
रहहिं अनेकों जीव तह, भिन्न-भिन्न हैं सत्त ॥ अर्थ-शस्त्राघात के सिवाय वनस्पति सचेतन कही गई है, उसमें अनेक जीव हैं और सबकी भिन्न-भिन्न सत्ता है । कवित्तअग्रबीज मलबीज पर्वबीज खंघबीज, बीजगह और ह सम्मच्छिम आनिये । तृण और लता आदि जाति हैं अनेकविध तिन सबही को सचित्त मानिये । कही सब वनस्पति अनेकनि जीवमई, भिन्न-भिन्न सबहो की सत्ता को निहारिये, शस्त्र-घात भये पाछे सबहिं अचित्त होय, ऐसो जिन-मासी तत्त्व मन में विचारिये ॥
अर्थ-अप्रबोज-कोरंटक आदि-जिनका बीज (उत्पादक अंश) ऊपर के अग्रभाग में हो, मूलबीज - उत्पल-कन्द आदि-जिनका बीज मूल (जड़) में हो, पर्वबीज - इक्षु आदि, जिनका पर्व (पोर) ही बीज रूप होता है, स्कन्धबीज-थूहर आदि, जिनका स्कन्ध ही बीजरूप होता है, बीजरूह-गेहूं आदि धान्य के बीज जिनसे अंकुर उत्पन्न होता है, समूच्छिम-लीलन-फूलन काई आदि जो बिना बीज के ही उत्पन्न हो, तृण-सभी जाति की घास, लता-पृथ्वी पर फैलने वाली और वृक्षादि पर लिपटने वाली बेलि-वल्लरी आदि । इस प्रकार जिनका मूल, स्कन्ध, पर्व, अग्रभाग और बीज आदि उत्पादक शक्ति से युक्त वनस्पति है, वह सर्व 'सबीज' कहलाती है। ये सभी सबीज वनस्पतियां चित्तमन्त-सचेतन या सचित्त कही गई है। उनमें अनेक जीव रहते हैं और उन सब जीवों की पृथक्-पृथक् सत्ता है।
जे पुन त्रस जीव वे हैं अनेक जाति अंडज पोतज जरायुज जानिये, रसज संस्वेदज सम्मूच्छिम उद्भिज औपपातिक भेद ये उनके ही मानिये। जो प्राणी सामें जाहिं भीति देखि पीछे हटें संकोचें ता पसारे अंग शब्द को करें हैं, इत जाहिं उतजाहिं भय देखि बोड़ जाहि, गति और आगति के ज्ञाता त्रस कहे हैं। ऐसे लट केंचु आदि अनेक बेईनोजोव, कुंथ-पिपीलिकादि तेइन्द्री जानिये, भौरे मक्खी मच्छरादि चउ इन्द्रियजीव, नारक मनुज देव पंचेन्द्री मानिये । जलचर थलचर नभचर पंचेन्द्री तियंच, सन्नी परमाधामी देव, या जो सुख चाहें हैं, ऐसे सभी त्रस जीव छठे प्रसकाय-मांहि, इहि भांति जिनेसुर देव ने गाये हैं।