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चतुर्थ षट्जीवनिका अध्ययन
अर्थ और ये बहुविध अनेक त्रस प्राणी हैं, जैसे-अण्डज-अंडों से उत्पन्न होने वाले मोर आदि, पोतज-जेर आदि आवरण के बिना उत्पन्न होने वाले हाथी आदि, जरायुज-जेर से वेष्टित उत्पन्न होने वाले गाय-भैंस आदि, रसज-दूध, दही आदि रसों में उत्पन्न होने वाले सूक्ष्म जन्तु (जर्स GERMS), संस्वेदक-पसीने से उत्पन्न होने वाले जू आदि सम्मूर्छिम बाहिरी इधर-उधर के जल-मिट्टी आदि के संयोग से उत्पन्न होने वाले कीट-- चींटी आदि, उद्भिक-पृथ्वी को भेदकर उत्पन्न होने वाले पतंगा आदि पंखवाले प्राणी, औपपातिज-उपपात जन्म से उत्पन्न होने वाले देव और नारकी। ये सभी जीव त्रसकाय हैं। अर्थात् जिन किन्हीं प्राणियों में सामने जाना, पीछे हटना, संकुचित होना, फैलना, शब्द करना, इधरउधर जाना, भय-मीत होना, दौड़ना ये क्रियाएं पाई जाती हैं और जो गति-आगति के ज्ञाता हैं, ऐसे सभी जीव त्रस कहलाते हैं। उनमें लट-केंचुआ आदि द्वीन्द्रिय जीव हैं, चींटी-चींटादि त्रीन्द्रिय जीव हैं, मक्खी-मच्छरादि चतुरिन्द्रिय जीव हैं, पांच इन्द्रियों वाले गाय-भैंस आदि सभी पशु और पक्षी आदि तिर्यग्योनिक, सर्व नारक, सर्व मनुष्य, सर्व देव (परमाधामी आदि असुर और सुर) ये सभी छठे त्रसकायिक जीव कहलाते हैं ।
(१०) दोहा- इत छह जीव निकाय का, स्वयं करे नहिं घात ।
नहीं करावे और सों, कभी जीव-संघात ॥१॥ परको करते देखकर, अनुमोदै न कटाप । जाव जीव प्रय करण से, छोड़े हिंसा पाप ॥२॥ मनसे बचसे काय से, करू न कराउ शूल' । करने की अनुमोदना, करू न कबहूं भूल ॥३॥ भूतकाल के दंश से, भगवन ! होउ निवृत्त ।
निंदा गरिहा करहि कं, होऊँ त्याग-प्रवृत्त ॥४॥ अर्थ-पृथ्वीकाय, जलकाय, अग्निकाय, वायुकाय, वनस्पतिकाय ये पाँच पावरकाय तथा द्वीन्द्रियादि सकाय, इन छहों जीव-निकायों का स्वयं दण्ड-समारम्भ नहीं करे, दूसरों से दण्ड-समारम्भ नहीं करावे, और दण्ड-समारम्भ करने वालों का अनुमोदन भी नहीं करे। यावज्जीवन के लिए इस प्रकार कृत, कारित, अनुमोदना इन तीन करणों से तथा मन, वचन, काय इन तीन योगों से न करूंगा, न कराऊंगा
और करने वाले अन्य की अनुमोदना भी नहीं करूंगा। हे भगवन्, मैं भुतकाल में किये जीवघातरूप दंड-समारंभ से निवृत्त होता हूं, उसकी निन्दा करता हूं, गर्दा करता हूं और आत्मा का व्युत्सर्ग करता हूं। १ प्राण-पीड़न ।