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तृतीय क्षुल्लकाचारकथा अध्ययन
(९-१०) कवित्तषप न वमन औ वसतिक्रिया विरेचन अंजन वंतवन ए दोष वरजित है । देह को सिंगारिवो, व अलंकृत कारिवो ए दोष सब टारिवो मुनीनिकों उचित है। निर्धन्य महर्षि तप संजम में लगि रहे, लघुभूत हके जे विहार करें नित है। धन्य हैं महर्षि वे धन्य है आचरण तिन, पाप-टारि जो सदा ही धर्म-रत हैं।
अर्थ-धुमनेत्र४५.-धूम्रपान की नलिका रखना अथवा धूप देना, वमनरोग को दूर करने के लिए वमन करना, वस्तिकर्म -रोग की संभावना से बचने के लिए एवं उदर शोधन के लिए गुदाद्वार से तेल आदि चढ़ाना, विरेचन ८-जुलाब लेना, अंजन:-आँखों में अंजन लगाना, दन्तवण५०-दातुन करना, गात्र-अभ्यंगतैल-मर्दन करना, विभूषण५१– शरीर को अलंकृत करना। ये सब कार्य संयम में लीन एवं वायु के समान लाघवयुक्त होकर उन्मुक्त विहार करने वाले निग्रंथ महर्षियों के लिए अनाचीर्ण हैं, अर्थात् करने योग्य नहीं हैं।
(११-१२) कवित्तहिसा झूठ चोरी और कुसील परिपह ऐसे पंच आत्रवनि को जिननि जानि लोने हैं। मन वच काय ऐसी तीन हूँ गुपति गहैं, छहकाय हिंसा टारें संजम प्रवीने हैं। पंच इन्द्रो दमन करन है धरन धोर, निग्रन्थ सरल दीठ मोख पंथ चोने हैं। प्रोसम आताप सहें सोत में उघार रहैं, वर्षा में संवर गहैं साधु ध्यान कोने हैं ।
अयं-हिसादि पांच पापों को जानकर उनका परित्याग करने वाले, तीन गुप्तियों से गुप्त, छह काय जीवों के प्रति संयत, पाँचों इन्द्रियों का निग्रह करने वाले र वीर निर्ग्रन्थ साधु ऋजुदर्शी अर्थात् सब पर समान दृष्टि रखने वाला मोक्षमार्गमें होते हैं।
(गाथा १२ का पद्य भाग पूर्व कवित्त के चतुर्थ चरण में समाविष्ट है।)
अर्थ -- सुसमाहित निम्रन्थ ग्रीष्म काल में सूर्य की आतापना लेते हैं, हेमन्तशीतकाल में खुले वदन रहते हैं और वर्षाकाल में प्रतिसंलीन अर्थात् एक स्थान पर या एकान्त में रहते हैं।
(१३)
दोहा-परिसह-अरि दमि मोह तजि, इंजिनि करी अधीन ।
करत पराक्रम रिसि महा, होन सकल दुख-हीन ॥ अर्थ- परीषहरूपी शत्रुओं का दमन करनेवाले, मोह-रहित जितेन्द्रिय महर्षि सर्व दुःखों के नाश के लिए पराक्रम करते हैं ।