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द्वितीय श्रामण्यपूर्वक अध्ययन
दोहा--आतप सहि तजि मृदुलता, जोति काम दुख जीति ।
द्वेष छेदि तजि राग कों, जगि सुख लहुं या रोति ।। अर्थ-अपने को तपा, सुकुमारता का त्याग कर । काम-वासना का अतिक्रम कर, इससे दुःख स्वयं दूर होगा । (संयम के प्रति) द्व पभाव को छेद और (विषयों के प्रति) राग भाव को दूर कर । ऐसा करने से तू संसार में सुखी रहेगा।
दोहा-जोति जलति दुसहा अनि, तामें परि जरि जाहिं ।
जाति-अगंधन-जात अहि, गहत वमित विस नाहिं ।। . अर्थ---अगंधन कुल में उत्पन्न सर्प जलती हुई विकराल अग्नि में प्रवेश कर राते हैं, परन्तु वमन किये हुए विप को वापिस पीने की इच्छा नहीं करते।
दोहा--- अजसकामि ! धिक्कार तुहि, जीवन कारन जोइ ।
पियो चहत है पमित कों, मरन भलो है तोइ । अर्थ-हे अयशःकामिन् ! धिक्कार है तुझे, जो तू भोगी जीवन के लिए वमन की हुई वस्तु को पीने की इच्छा करता है ? इससे तो तेरा मरना ही भला है।
दोहा..-उग्रसेन-धी मैं, तु हूँ समुदविजय को लाल ।
___ गंधन-कुल जनि होंहि हम, थिर संजम-पथ चाल ।
अर्थ-मैं भोजराज (उग्रसेन) की पुत्री हूं और तू अन्धकवृष्णि (समुद्र वजय) का पुत्र है । हम कुल में गन्धन सर्प के समान न हों। तू निभृत-स्थिर मनहो संयम का पालन कर।
बोहा-जो जो नारि निहारि है, जो तू करि है चाह ।
अपिर आतमा होयगो, जिमि हड पवन-प्रवाह ॥ अर्थ-यदि तू स्त्रियों को देखकर उनके प्रति इस प्रकार राग-भाव करेगा, तो वायु से प्रेरित हड वृक्ष के समान अस्थिरात्मा हो जायेगा।