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हितीय श्रामण्यपूर्वक अध्ययन
दोहा-कौन रीति संजम सजे ? काहि तर्ज न जोय ।
इच्छा के आधीन तो, पग-पग पीड़ित होय ॥ अर्थ-जो मनुष्य संकल्प के वश हो, पद-पद पर विषाद-ग्रस्त होता हो, और क.म-विषयानुराग का निवारण नहीं करता, वह श्रमणत्व का पालन कैसे करेगा?
बोहा-बसन गंध भूसन, सयन, रमनी गन चित चाहि ।
विनु अधीन भोगत नजो, त्यागी कहत न ताहि ।। अर्थ-जो वस्त्र, गन्ध, अलंकार स्त्रियों और पलंगों का परवश होने से (या उनके अभाव में) सेवन नहीं करता, वह त्यागी नहीं कहा जाता।
दोहा-सुन्दर प्यारे भोग लहि, देत पोठ जन जोय ।
निज अधीन भोजन तजे, त्यागी कहियत सोय ।। अर्थ-जो कान्त और प्रिय भोग उपलब्ध होने पर भी उनकी ओर पीठ कर जा है और स्वाधीनता-पूर्वक भोगों का त्याग करता है, वह त्यागी कहा जाता है।
दोहा --मुनि विचरत सम वीठि सों, जो मन बाहिर जाय ।
वह न मोरि वा को न मैं, यों तिय राग हटाय ॥ अर्थ-समदृष्टि-पूर्वक विचरते हुए भी यदि कदाचित् यह मन बाहिर निकल जाय, तो यह विचार करे कि 'यह मेरी नहीं है और न मैं ही उसका हूँ।' इस प्रकार साधु स्त्री विषयक राग को दूर करे।।