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प्रथम द्रुमपुष्पिका अध्ययन
दोहा- हम लहिहैं या रहनिकों, ज्यों नहिं कोउ दुखाहि ।
____ जया किये में विचरिहैं, जिमि अलि फूलनि माहि ॥
अर्थ-हम इस प्रकार से वृत्ति (भिक्षा) प्राप्त करेंगे कि किसी जीव का उपघात न हो। श्रमण यथाकृत-सहजरूप से बना--आहार लेते हैं जैसे भोरे फूलों से रस ।
वोहा- ज्ञानवन्त प्रतिबंध बिनु, जे मधुकर-सम होहिं ।
___दमी अनेकन पिंड-रत, साधु कहत तिनकोहि ।।
अर्थ-जो ज्ञानी पुरुष मधुकर के समान अनिश्रित है-किसी एक पर आश्रित नहीं है, नाना घरों के पिंड में रत है और इन्द्रिय-जयी है, वे अपने इन्हीं गुणों से स.धु कहलाते हैं, ऐसा मैं कहता हूँ।